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149 अवान्तरफलं तेषामीप्सितं हि महीतले । न च सन्ततिविच्छेदः तेषां पुण्यकृतां भुवि ।। ५ ।। फलपुष्पाणि पत्राणि यावन्ति प्रतिवत्सरम् । उद्भवन्ति तथा कामाः तेषामपि महीतले ।। ६ ।। प्रत्यहं मम नैवेद्य यावत्प्रस्थचतुष्टयम् । सव्यञ्जनं कल्पयन्ति ते हि पुण्यतमा भुवि ।। ७ ।। ब्रह्मोन्द्रलोकप्रमुखास्ते सुखेन जिता नरैः । तदीयदर्शनात्पुंसो भवन्ति महिमादयः ।। ८ ।। तेषामैश्वर्यसम्पत्तौ वक्तव्यं नावशिष्यते । अन्ते यान्त पर धाम पुनरावृत्तवाजतम् ।। ९ ।। जो कोई यहा उत्तम तुलसीवन या अनेक सुन्दर सुगन्धित फूल-फलवाले वृक्षों की फुलवाडी लगाकर उनके फूल से मेरी पूजा करते हैं, वे प्रत्येक पत्ता के लिए देवताओं के वर्ष प्रमाण से करोड़ों वर्षों तक स्वर्ग भोगकर अन्त में मेरे पद को पाते हैं। और उनकी भूलोक की सभी कामनाएँ अवान्तर-रूप से ही सिद्ध होती हैं । उन पुण्यात्मा के दंश का संसार में कमी उच्छेद नहीं होता। उन उद्यानों में प्रतिवर्ष जितने फल, फूल, पत्ते उत्पन्न होते हैं, उनकी उतनी ही कामनायें पृथ्वीतल पर सिद्ध होती हैं ! जो मुझको प्रतिदिन व्यञ्जनादि के साथ चार सेर नैवेद्य चढाते हैं, वह संसार में बड़े पुण्यशाली हैं । वे ब्रह्मादि तथा इन्द्रादि देवलोकों को अनायास ही जीत लेते हैं और उनके दर्शन से सभी महिमाएँ प्राप्त होती हैं। उनके ऐश्वर्यं तथा सम्पत्ति के विषय में तो कुछ कहना ही नहीं। अन्त में वे पुनर्जन्म से रहित होकर परमधाम को पाते हैं। (२-९) भूषणं स्वर्णखचितं वज्रमाणिक्यसंयुतम् । प्रयच्छन्ति च ये पुण्या भामुद्दिश्य महीतले ।। १० ।। रूपलावण्यसम्पन्ना विद्यावन्तश्चिरायुषः । भवन्ति पुत्रास्तेषां च मच्छन्दात्सम्पदोऽपि च ।। ११ ।।