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15 7 हे देवता, ऋषि तथा योगिणो ! यहाँ आप जितने उपस्थित हैं उन सबकी जो जो इष्ट कामनायें हैं, वह सब कुछ मैं अवश्य प्रदान करता हूँ । पुत्र, पौत्र, धन, राज्य, आरोग्य, आयु, कीर्ति यः और भी किसी वस्तु की जो कोई कामना करता है, वह सब मैं उसे अवश्य हो देता हूँ यह बिल्कुल सत्य है ; इसमें कुछ भी संशय नहीं । अधिक क्या कहूँ ; जो कोई यहाँ निवास करनेवालों का उपकार करते हैं, वे मेरे अत्यन्त प्रिय हैं । जो कोई मनुष्य, देवता या राक्षस, यक्ष या पिशाच, कोई भी प्राणी यहाँ निवास करनेवालों से द्रोह करते हैं, मैं उनका सपुत बन्धु बान्धकों एवं पशुओं के साथ नाश करता हूँ । (१४-१८) नियतोऽनियतो वाऽपि वेङ्कटाद्रिमिमं जनः ।। १९ ।। व्याजाद्वा यः समारुह्य स्नात्वा स्वामिसरोजले । नमस्यति च मां सोऽपि स कामः सर्वथा सुराः ।। २० ।। लियम या अनियम से श्रद्धा या छल से किसी प्रकार से भी कोई इस बेङ्कट पर्वत पर चढ़कर स्वामिपुष्करिणी के जल में स्नानकर मुझे प्रणाम करेगा बह् सदा सफल मनोरथ होगा । (१९-२०) कूलङ्कषमहौदार्यगुणक्षीरपयोनिधिः । इति श्रीवेङ्कटाधीशस्तेभ्यो दत्वा वराण्यहो ! ।। २१ ।। भेरीमृदंगपणवमङ्गलस्वनसंयुतः । पुष्पवृष्ट्या युतः श्रीमाच्छीभूमीसहितस्तदा । विवेशान्तर्महद्दिव्यं विमानं रत्नतोरणम् ।। २२ ।। इस प्रकार वरप्रदान करके औदार्यगुण क्रा गम्भीर क्षीर-सागर रूप श्री वेङ्कटाधीश ते भेरी, मृदंग, पणव आदि की मङ्गल ध्वनि के साथ पुष्प वृष्टि होते-होते लक्ष्मी तथा पृथ्वी देवियों के साथ उस महादिव्य रत्नतोरण युक्त त्रिभान में प्रवेश किया । (२१-२२) ब्रह्मादयो देवगणाः सम्भूय प्रीतमानसाः । जयेति वास्तुवंस्तेन घोषेणापूरितं जगत् ।। २३ ।।