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मध्याह्न समय उन पुष्पाभरणों को उतारकर महाभिषेक किया जाता है। और उसी दिन के वस्त्राभूषण आगामी बृहस्पति वार तक रह जाते हैं । इस बृहस्पति वार के होनेवाले पुष्पयज्ञ का दर्शन बहुत ही पुण्य प्रद हैं । ततः प्रीतिसमायुक्तो ब्रह्मक्लुतोत्सवेन सः । उवाच च विधि विष्णुर्बह्मन् प्रीतोस्मि साम्प्रतम् ।। ३५ ।। एतत्प्रीतिसमं किञ्चिद्दातुं तव न विद्यते । ब्रह्मन् यद्वाथ किं दास्ये जगत्सृष्टिपटो विधे ! ।। ३६ ।। ब्रह्माजी द्वारा व्यवस्थित इस उत्सव से प्रसन्न होकर श्री विष्णु ने उनसे कहा-हे ब्रह्माजी मैं अब प्रसन्न हूँ। इस प्रसन्नता के बदले में देने योग्य कोई भी वस्तु नहीं है। हे संसार सृष्टि पटु ब्रह्माजी ! और अधिक क्या ? (३५-३६) त्वमेवाहमहं त्वं हि यद्यस्त्यन्यद्वदर तत् ' ! इति पृष्टोऽवदत् ब्रह्मा 'स्वस्मिन् यद्यस्ति ते कृपा ।। ३७ ।। कृतार्थोऽस्मि वरं नान्यल्लोकस्यानुग्रहं विना । एवमेव हरे स्वामिन् दद चेप्सितमथिने ।। ३८ ।। स्थातव्यं भवता विष्णो लोकानुग्रहंकाभ्यया । इदमेव ममाभीष्टं याचनीयं पुनः पुनः ।। ३९ ।। इति पृष्टो रमाधीशः तथैवास्त्विति चावदत् । क्यों कि जो आप हैं, वही मैं हूँ, वही आप हैं ! अब आप ही बता अन्य कौन-सी वस्तु मैं प्रदानकर सकता हूँ। ऐसा पूछने पर ब्रह्माजी कहने लगे कि हे स्वामिन, यदि सचमुच ही आपकी कृपा है, तो मैं धन्य हूँ । संसार की कल्याण कामना के सिवाय भुझे और कुछ भी अभिलाषा नहीं है । अतः इसी प्रकार है भगवन ! प्रायीं लोगों के अभीष्ठ पूर्ण करते हुए अनुग्रह-भाव से आपको रहना चाहिये ; यही मेरी बारम्बार प्रार्थना है। ऐसा कहे जाले एर रमापति भगवान ने कहा कि ऐसा ही होगा । (३७-३९)