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155 ब्रह्मादीनां स्वावासगमनार्थ भगवद्भ्यनुज्ञा उक्त्वा चैवं पुनः प्राह ब्रह्माणममितौजसम् ।। ४० ।।

  • ब्रह्मांस्त्वं सृष्टिकार्येषु नियुक्तः पूर्वमेव हि ।

गत्वा त्वदीयलोकं च कुरु सृष्टिं सुखी भव ।। ४१ ।। इदं गच्छ स्वकं लोकं शाधि राज्यं स्वकीयकम्' । ऐसा कहने के बाद, तेजयुक्त ब्रह्माजी से विष्णु भगवान ने फिर कहा कि हे ब्रह्माजी ! आप सृष्टि-कार्य में पहले से ही नियुक्त किये गये हैं, अत एव आप अपने लोक में जाकर अपनी सृष्टि क्रिया आरंभ कीजिए तथा सुखपूर्वक निवास कीजिये । पिनाकपाणे भूतेश लोक गत्वा त्वदीयकम् ।। ४२ ।। उमया विहरस्व त्वमवाप्तसकलेप्सितः । अगत्स्यमुनिशार्दूल ! शिष्यैः सह तपोधन ।। ४३ ।। स्वमाश्रमं प्रविश्यैव कुरु नित्यान्यतन्द्रितः । योगिनश्च यथायोग्यं गच्छतावासमुत्तमम् ।। ४४ ।। (४०-४१) ध्यानामृत सुतृप्तैश्च स्थातव्यं योगिभिश्चिरम् हे पिनाकपाणि महादेव जी ! आप भी अपने लोक में जाइए और अपने राज्य का शासन कीजिए तथा सफल-मनोरथ हो उमादेवी के साथ विहार कीजिए । हे मुनिशार्दूल अगत्स्थमुनि ! आप भी अपने शिष्यों तथा तपस्वियों के साथ अपने आश्रम में जाकर आजस्य रहित हो नित्य-कभ्मों के अनुष्ठान में प्रवृत्त होइए । हे योगिगण ! आप लोग भी अपने-अपने उत्तम स्थानों को जाइए और ध्याना मृतानन्द से तृप्त योगियों के साथ सदा निवास कीजिए । (४२-४४) इति श्रीवेङ्कटाधीशः सवानुत्सवसङ्गतान् ।। ४५ ।।