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158 वेङ्कटाधीश के वैभव की प्रशंसा मुनियों ने कहा-हे भगवान सूतजी ! हे सकल वेद-वेदान्तादि शास्त्रों के तत्वों के ज्ञान में परमनिष्ठावाले ! आप के उपर्युक्त कथित परमाश्चर्यमयः आख्यान को हम लोगों ने सुना कि वेङ्कटाद्रि का यह प्रभाव ऐसा पाप-नाशक है !! भगवान की उस पर्वतपर इतनी अपरिमित प्रीति है!! श्री वेङ्कटेश जी, महाश्चर्यमय तथा परम दिव्ा चरित्र भूषणवाले हैं । उनका चरित अपूर्व, अदृष्ट, परमाद्भुत तथा पृथ्वी पर कहीं भी न देखा और न सुना ही है । हे तपोधन ! इस आख्यान को सननेवालों को तृप्ति नहीं होती है । हे मुनिवर ! देवताओं को विदाकर एयापति भगवान ने क्या क्रिया ? तथा विदा होनेपर देवताओं ने क्या किया ? यह पूछने पर श्री सूतजी उन मुनियों से बोले कि हे तपोधन वृन्द ! आप लोग सुनिये । (१-५) ब्रह्मादीनां स्वावासगमनम् सूत उवाच :- आरुह्य हस ब्रह्मा तु स्तूयमानः सुरस्तथा । सत्यलोकं जगामाशु सर्वलोकपितामहः ।। ६ ।। दिव्यं विमानमास्थाय सहस्राक्षः पुरन्दरः । गन्धर्वेगयमानश्च प्रविवेशाभरावतीम् ।। ७ ।। नन्दिकेश्वरमुख्यैश्च गणैः प्रमथसंज्ञकैः । सहितः पार्वतीनाथः पर्वतं वेङ्कटाभिधम् ।। ८ ।। कुर्वन्प्रदक्षिणं पश्यन्वस्तुं स्थलमनुत्तमम् । आग्नेऽप्यां दिशि चाद्राक्षीद्वेङ्कटाद्रेः सरः शिवम् ।। ९ ।। तत्र दृष्ट्वा सरःपुण्यं कापिलं लोकपावनम् । रमणीयमिदं स्थानं स्थातव्यमुमया सह ।। १० ।। अत्रैवे'ति विनिश्चित्य जगाम् रजताचलम् ।