पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/१७९

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161 केचिदिरौ स्थिताश्चैव नित्यमोश नमन्ति च । गिरेः परिसरे केचिन्न्यत्रसन्नित्यमव हि ।। २० ।। 'पुनरप्यागमिष्याम ' इति जमुः परं तदा । अगस्त्यो भगवांस्तत्र श्रीमद्वेङ्कटनायकम ।। २१ ।। अयंयन्विविधैः पृष्पै: कृत्वाचोद्यानमुत्तमम् । चिरकालं महाभाग सह शिष्यैर्महामुनिः ।। २२ ।। पिबन्नानन्दपीयूषं त्यवसद्वेङ्कटाचले । उसी तीर्थ की उत्तर दिशा में तालाब के पश्चिम तट पर जाबालि ऋषि अपने शिष्यगणों के साथ आराम से निवास करते शे । और मी कई अन्प ऋषि उसी पर्वत पर प्रति दिन भगवान को प्रणाम करते हुए रहते थे । अन्यान्य कई लोग भी उस पर्वत के आस-पास में निवास करने लगे । कितने मुनि यह कह कर जाने लगे कि हम लोग फिर भी आयेने । महामुनि, महाभाग भगवान अगस्त्य जी उस पर्वत के ऊपर उत्तम-उत्तम उद्यान लगाकर भांति भांति के पुष्पों से श्री वेङ्कटेश भगवान की पूजा करते, अपने शिष्यों के साथ आनन्दामृत पान करते हुए उसी पर्वत पर चिरकालतक निवास करने लगे । (१९-२२) वेङ्कटेशः श्रिया भूम्या समेतः पुरुषोत्तमः ।। २३ ।। कृतत्रेताद्वापरेषु देवराजैर्महीक्षितै कल्पितैर्विविधैर्नित्यमुत्सवैः परमाद्भुतैः ।। २४ ।। पूजितो मोदते नित्यं ददन्निष्टं च याचते । कलौ युगे तटिद्वृत्तिरास्ते श्रीवेङ्कटाचले ।। २५ ।। एतद्वः सर्वमाख्यानं कथितं मुनयोऽमलाः । श्रोतुमिच्छथ ? भूयोऽपि किञ्चिद्वक्ष्यामि शंसत । इत्युक्त्वा मुनयः सर्वे प्रोचुरेतद्वचस्तदा ।। २६ ।।