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166 सुदुशन तथा असुरा का युद्ध वेङ्कटाचल के पूर्व दिशा में अनेक बड़े बड़े पर्वत थे । उन्हीं पर्वतों के वन प्रदेश में अनेकों मा बलवान, परमाणावो, हिंसक, वंचक, महा भयङ्कर, पूरे अभिमानी सदा तलवार, ढाल तथा अन्यान्य शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित सब प्राणियों के क्षेत्र, धन सम्पति आदि अपहरण कर उनको भयभीत करनेवाले, राज्यवगों से भी अदम्य: अत्यन्त दुरवगाह वन-प्रदेश में रहनेवाले, खासकर साधु-ब्राह्मणों को सर्वदा बाधा देनेवाले, काले बादलों के समान गर्जन करनेवाले, नील कज्जल-राशि के समान राक्षस समूह निवास करते थे । उनमें से ही सैकडों, हजारों की संख्या में निकल निकल कर बाहर आने लगे और चक्रराज सुदर्शन की सेना के भी कुछ विख्यात पराक्रमी प्रधान-प्रधान वीरगणा आ.अकर आमने सामने जमने लगे । पीछे इन दोनों सेनाओं में परस्पर अपूर्व, उत्तम तथा तुभुल युद्ध हुआ । (१-६) समाप्तायुष्यशेषास्त शलभा इव पावकम् । विविशुश्चक्रराजस्य ज्वलन्तीं वाहिनीं तदा ।। ७ ।। विनिर्दग्धाश्च ते सर्वे दस्युरूपा वनेचराः । तद्वंशजास्तादृशाश्च शिशुबालाः स्त्रियोऽपि च ।। ८ । ययुस्ते विलयं सर्वे चोरा माथोपजीविनः । निष्कण्ठकमभूत्तच्च वनं पक्षिमृगाकुलम् ।। ९ ।। वेङ्कटाद्रि समारभ्य यावद्वेला महोदधे । तावान्देशश्च संग्रामः सपत्तनवनालयः ।। १० ।। सर्वबाधाविनिर्मक्त: सपर्वतनदीतट : । बभूव परमानन्दा राहुमुक्त इवोडुराट् ।। ११ । बभूवुर्मुदिताः सर्वे जना जानपदाश्च ये । तुष्टुवुः ब्राह्मणास्सर्वे मुनयो योगिनोपि च ।। १२ ।।