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168 प्रभु सुदर्शन हरि देश के मध्य भाग में आ सभी मनुष्यों को बुलाकर यह वचन बोले कि आप लोगों के लिए मुझे क्या कुछ और करना चाहिए । यदि हो तो कह सकते हैं । (१३-१७) इतः पूर्व वयं सर्वे पीडिताः सुभृशं प्रभो ! । दस्यूभिस्नस्करैः त्रोरैश्चोरप्रायैश्च राजभिः ।। १८ ।। प्रसादाद्भवतः स्वामिन्देशोऽयं निरुपद्रवः । आसीद्वयं कृतार्थाः स्मेत्युक्तः प्राह च चक्रराट् । १९ ।। धर्मात्मानं नपं कश्चित्कृत्वा देशाधिपं पून । न्याय्ये वत्र्मनि वर्तध्वं यूयं तेन गतश्रमाः । एवं सुरक्षितं चक्रे तं देशं हेतिभूपति ।। २५ ।। तब सभी मनुष्य बोले-हे प्रभो ! इसके पहले हम सब लोग चोरो, तस्करों डकैतीं तथा चोरों के ही समान राजाओं से अत्यन्त पीडित रहते थे । हे स्यामिन आपके प्रसाद से यह देश निरुद्रव हो गया और हम लोग अब कृतार्थ हो गये उनके ऐसा कहने पर किसी धर्मात्मा राजा को उस देश का मालिक बनाकर चक्रराज बोले कि आप लोग न्याय के रास्ते पर आराम से रहें । इस तरह हेतिराज चक्र सुदर्शन ने उस देश को सुरक्षित कर दिया । (१८-२०) आग्नेयदिशि सुदर्शनकृतासुरवधप्रकारः आग्नेय्यां दिशि शेषाद्रेः केचिद्वैत्यांशसम्भवाः । महामायाविनो घोरा वञ्चकाः क्षत्रबान्धवाः ।। २१ ।। ब्राध्माना द्विजानासन्साधूत्सवाञ्जनास्तथा । देवब्राह्मणविश्वासस्तेषां नासीत् कदाचन ।। २२ ।। वने दुर्ग गिरी दुर्ग स्थले दुर्ग तथैव च । एवमावासदेशं तु कृत्वाऽतिष्ठंस्तु तत्र हि ।। २३ ।।