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170 निःशेषं कुरु राज्ञस्तान् चोरांश्च मददुर्मदान् । इत्याज्ञप्तस्तदा तेन चक्रराजेन वै बली ।। ३२ ।। ज्वालामुखस्तथा चक्र युद्ध परमदारुणम् ! तत्सैन्यं लोलयामास मदमत्त इव द्विपः ।। ३३ ।। उन्होंने अद्धत शस्त्रास्त्र लिये महासेना को आया हुआ जानकर, परशु आदि शस्त्रास्त्र से महाघोर युद्ध किया । वे पाश खङ्गं त्रिशूल, तोमर, मुद्गर आदि शस्त्रास्तों से दीरों को तथा घोडों, ऊँटों एवं हाथियों को मारते थे । युद्ध में सेना के आने को वीरों के शिर काट डाले कोई पैरों तथा कोई हाथों से भग्न होकर पडा था । । कट हुए मस्तक, पैर, क्रबंध, हाथ, अस्त्र, शस्त्र, कवच, पगडी केशपाश , रक्त की धार, मांस खण्ड, नरकङ्काल तथा अन्तडियों से छाई हुई वह युद्ध भूमि प्रेतराज की विशाल यम पुरी के समान दीख पडती थी । उस समय उनसे सारी सेना विदीर्ण कर दी गयी। इस तरह सेना के एक भाग को क्षुब्ध तथा दुष्टों की दुष्टता देखकर परम क्रोधित हेतिराज सुदर्शन उसी प्रकार क्रोधित हुए जिस तरह भगवान त्रिपुरारि शंकर त्रिपुर को मारने के समय क्रोधित हुए थे । उस तरह के चोरों तथा महामायावियों के निग्रह के लिए, सेनापति ज्वालामुख को ससैन्थ आज्ञा दी कि उन चोर राजाओं चोरों एवं मदान्धों को निश्शेष कर दो । (२४-३३) छिन्नाभिन्नास्तथा जग्मुश्चोरास्तत्र वनेचराः । पलायन्ते स्म भीतास्ते त्यक्तशस्त्रायुधास्तदा ।। ३४ ।। त्यक्त्वा समरभूमिं च वने लीनाश्च सानुषु । न हि तत्र जनः कश्चिद्ददृशे वनभूमिषु ।। ३५ । गिरेदुर्गेषु सर्वेषु वनदुर्गेषु सानुषु । महाबिलेषु कुब्जेषु कुटीरेषु गुहासु च ।। ३६ ।। मृगयामासुरव्यग्रास्तस्य चानुचरास्तदा । ददृशुर्न हि कचिच्च विनिर्गत्य तु विस्मिताः ।। ३७ ।।