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172 गत्वा च देशे तत्रापि भस्मसात्कुरु तानरीन् '। इति चिक्षेप तद्दिव्यमस्माग्नेयमुत्तमम् ।। ४३ ।। आन्कम्य रादसा तच्च ज्वालामालासमाकुलम् । चोरदेशं समाक्रम्य गिरिदुर्गवनानि च ।। ४४ ।। यत्र यत्र च तिष्ठन्ति मायिनस्ते वनेचराः । अदहत्तानि सर्वाणि स्थलात्यन्यानि यानि च ।। ४५ ।। तब सभी भूत चित्रुलाने लगे तथा समुद्र क्षुब्ध हो गये । “अन्तधन होकर जहाँ सब चोर, वंचक रहते हैं, वहाँ जाकर उनको भस्मसात कर दो'। ऐसा कहकर परमाद्भुत आग्नेय महास्त्र को छोडा । पृथ्वी तथा आकाश उस ज्वालमाला से व्याप्त हो गया । उसने उन् चोरों को देशों, पर्वतों, दुग तधा वनों पर चढाई कर जहाँ जहाँ वे मायावी वनचर रहते थे, उन सबों के साथ सारे देश को तथा अन्यान्य सब जीवों को जला डाला । {४२-४५) ते च सर्वे दूरात्मानो दुग्धकेशतनूरुहाः । तेषां स्त्रियश्च बालाश्च सर्वे दग्धाश्च वह्निना ।। ४६ ।। बिलेभ्यः कन्दरेभ्यश्च निष्पेतुः क्षत्रबान्धवाः । वन् तदाय तत्सव भस्माभूत च तक्षणात् ।। ४७ ।। निबजं तत्कुलं सर्व दग्धमस्त्रस्य तेजसा । भस्मीकृत्य तु तान् सर्वान्प्रविवेशेषुधि तदा ।। ४८ ।। उन सब दुरात्माओं का शरीर केशपाश के साथ जल गया तथा उनकी स्त्रियाँ बच्चे सभी क्षत्रियाधम गड्ढों, खोहों, कन्दराओं आदि सभी से निकल भागे । उनका बह सारा वन तत्क्षण भस्मीभूत हो गया । उनका कुल अस्त्र के तेज से एकदम निबज हो गया । उन सर्वोों को भस्म कर वह महास्त्र तरकस में लौटकर (४६-४८)