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धृष्टि समानयामास सद्यः शीतलकारिणीम् । अप्लावयत तं देशमाजग्मुनिर्गता जनाः ।। ४९ निहताः सर्वचोराश्च तेजसा भवत: प्रभो। ' । इति विज्ञापितस्तेन बलाध्यक्षेण सः प्रभुः ।। ५० ।। सन्तुष्तस्तत्र तं देशमागत्य च सुदर्शनः । तानि दुर्गाणि सर्वाणि स्थलीकृत्य वनानि च ।। ५१ ।। प्रकाशानि ततश्चक्रे देशं प्रहतमार्गकम् । तत्रत्यान् स्थापयामास साधून्विप्रादिकानपि ।। ५२ ।। स्थापयित्वा च तद्देशे धर्माध्यक्ष दयापरम् । वृष्टिशाल्यादिवृध्द्या च पोषयामास देशिकान् ।। ५३ ।। उन्होंने तरन्त शीतलकारी वर्षा लाकर पुन्: उस देश को जल से प्लावित कर दिया और गये हुए मुनिगण तथा मनुष्य पुनः आ गये । “ आपके तेज प्रभाव से सभी चोर मारे गये ” ऐसा उस सेनापति से विज्ञाषित होने पर सन्तुष्ट हो महाप्रभु सुदर्शन जी ने उस देश में आकर, उन सब दुस्तर जङ्गलों को निवास योग्य बनाकर उस देश को सुन्दर रास्तों से युक्त तथा प्रकाशित बनाकर वहाँ के साधुओं तया ब्राह्मणों आदि को स्थापित किया और उस देशपर धर्माध्यक्ष, दयावान राजा को स्थापित कर वर्षा, धान वगैरह की बढ़ती आदि से उन सब देशवासी लोगों को दृष्टपुष्ट कर दिया । (५२-५३) इति श्रीवाराहपुराणे श्रीबेङ्कटाचलमाहात्म्ये सुदर्शनसैन्यासुर सैन्ययोर्युद्धप्रशंसादिवर्णनं नाम चतुःपञ्चाशोऽध्यायः । अत्र द्वाविंशः ।