पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/१९७

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तत्पश्चात महाप्रभु राजा सुदर्शन ने हयग्रीव नामक दारुण महाबाण का “पर्वत चोटियों पर जाकर छिपे हुए, प्रणिपीडा कारक,दैत्यांश सम्भव, जितने जो कोई जहाँ कही रहते हो उन सबों को मार डालो ।" ऐसा कइ धनुष पर चढा कर जल्दी से छोड दिया । उस अस्त्र के निकलने के शब्द से ही सभी दुरात्माओं की सेना छिन्न-भिन्न हो गयी । दत्यानश्धान्खरानुष्ट्रान् रथान्युद्धसमागतान् ! द्विधा चकार समरे हयशीर्ष महाशरः ।। ३२ ।। (२९-३१) वनेषु गिरिदुर्गेषु ग्रामे वा पत्तनेऽपि वा । यत्र यत्र दुरात्मानस्ते सर्वे च द्विधा कृताः ।। ३३ ।। तज्जातीयाश्च शिशवस्तेषां दाराश्च बालिकाः । द्विधा कृताश्च ते सर्वे चित्रमस्त्रस्य तेजसा ।। ३४ ।। महाबाण हयशीर्ष ने युद्ध में आये हुए दैत्यों, घोडीं, गदहों, ऊंटों तथा रथों के दो-दो टकडे कर डाले । वनों, पहाड़ों, दुगों ; ग्रामों तथा नगरों में जहां जहाँ दुरात्मगण थे, वहाँ वहाँ सभी दो-दो खण्ड कर दिये गये । अहो ! कैसी विचित्रता है कि उनके स्वजातीय बालक, स्त्री, तथा बालिकाएँ समी उस ज्योतिमय अस्त्र के तेज से दो-दो टकडे कर दिये गये । (३२-३४) तद्दृष्ट्वा देवताः सर्वा देशीयाश्च जना अपि । विस्मयं परमं जग्मुः किमिदं चेति तेजसा ।। ३५ ।। छिन्न भिन्न शरैर्दग्धं प्रभग्नं शरपीडितम् । बलं सर्व तु दुष्टानां ददृशे रणभूमिषु ।। ३६ । देशबाधकदुष्टेषु न कश्चिद्ददृशे तदा । जलदुर्ग गिरौ दुर्ग वनदुर्ग तथैव च ।। ३७ ।। स्थलदुर्ग च यश्चान्यो निवासो दुष्टदेहिनाम् । तत्तत्सर्वं महाराजो भग्नं कृत्वा महागजैः ।। ३८ ।। ।