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कृत्वा प्रकाश त दशः कृत्वा प्रहतमागकम् । महामार्ग च सर्वत्र कुत्वा निहतकण्टकम् ।। ३९ ।। विप्रक्षत्रादिकान्साधूनन्यानपि जनान्बहून् । स्वे स्वे धर्मे नियुज्यैव स्थापयामास व सुखम् ।। ४० ।। 'नीरोगाश्च जनाः सर्वे कामक्रोधपराङ्मुखाः । वेदशास्त्रपराः सर्वे सर्वे यजैः सुनिष्ठिताः ।। ४१ ।। काले वर्षन्तु मेघाश्च फलन्तु च महीरुहाः । समृद्धानि च सस्यानि सन्तु लः शासनादिति ।। ४२ ।। अनुगृह्य च तान्सर्वास्तस्थौ तद्देशवासिनः । ववृधे वेङ्कटाधीश करपङ्कजभानुमान् ।। ४३ ।। तत्र देवाः समागत्य स्तुत्वा देवं हरिं प्रभुम् । ववषुः पुष्पवषाण गन्धवाश्र जगुः कलम् ।। ४४ !! उसको देखकर देवता तथा सभी देशवासी लोग परम विस्मित हुए कि यह क्या हुआ ! दुष्टों की सारी सेना ब्राणों से छिन्न-भिन्न, जलायी तथा पीडित हो उस रण भूमि में विनष्ट-प्राय दीख पडी । देश-वाधक दुष्टों में कोई भी उस समय न देखा गया । जल-दुर्ग, गिरि दुर्ग, वन-दुर्ग तथा स्थल दुर्ग एवं अन्यान्य उन दुष्टों के निवासस्थान सभी की महाराज सुदर्शन ने बडे बडे हाथियों से तोडवाकर उस देश को साफ़ कर, सर्वत्र गहा मार्ग, सडक तथा राज पथादि बनवाकर निष्कटक करके ब्राह्मणों, क्षत्रियों, साधुओं, तथा अन्यान्य अनेकों. मनुष्यों को अपने अपने धमों में नियुक्त कर वहाँ सुखपूर्वक स्थापित कर दिया। 'मेरी आज्ञा से सभी मनुष्य नीरोग, काम-क्रोध पराङ्मुख, वेदशास्त्र-परायण तथा यज्ञों में सुनिष्ठित रहें और समयानुसार मेध बर से, बड़े-बड़े वृक्ष फल एवं सस्य उपजाकर पैदा हों । ऐसा उस देश के सभी निवासियों पर अनुग्रह कर श्री वेङ्कटाधीश के करकमलस्य सूर्यरूपी चक्रराज बढ़ने लगे । वहां सब देवताओं ने आकर प्रभु हरि की स्तुतिकर पुष्प वर्षा की, तथा गन्धर्वगण मधुर गान किये । (३५-४४)