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चतुर्विशोऽध्यायः वरुणदिश्यसुरसुदर्शनसेनायुद्धप्रशंसा श्रीसूत उवाच :- राजा सुदशनः श्रामान्प्रतापहतकण्टक । दक्षिणां दिशमासाद्य कृत्वा निर्वाधमेत्र ताम् ।। १ ।। देशस्य रक्षणार्थाय कश्चिन्नपवरं तदा । धर्मात्मानं प्रतिष्ठाप्य प्रतस्थे पश्चिमां दिशम् ।। २ ।। वरुण दिशा सेना सहित, गये सुदर्शन राज । काननकर्ता दैत्यपति, रहता सहित समाज ।। १ ।। युद्ध हेतु वर सैन्य सजि, आयुध विपुल सजाय । लडे सुदर्शन सैन्य से, अतुलित बल दिखलाय ।। २ ।। अन्त सुदर्शन राज ने, युग्म मुहूर्तहिं माँह । ताहि बधा सेना सहित, फैलाई सुख-छाह ।। ३ ।। श्री सूतजी बोले-प्रताप से कण्टकों को नाश करनेवाले श्रीमान भहाराज श्री सुदर्शन भगवान ने दक्षिण दिशा में जाकर, उसको बाधा-रहित करके, देश की रक्षा के लिए किसी परम धर्मात्मा राजा को स्थापित कर पश्चिम दिशा को प्रस्थान किया (१-२) शतं शतसहस्राणि भेरीणां व्यनदंस्तदा । पताकिनो गजास्तत्र ध्वजयुक्ताश्च वाजिनः ।। ३ ।। मत्तेभा: कलभाश्चैव तथा गम्भीरवेदिनः । शस्त्रवमायुधापत्ताः सन्नद्धा युद्धकारणात् ।। ४ ।।