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ला तूरसादयामास दक्षयज्ञ ध्वंसकारी रुद्र को कवान कर उस साहसी, बीर ने खड्ग लेकर माला पहने हुए गन्धादि से अलङ्कृत अपने शिर को भगवान शंभु के पूजार्पण के लिए काट डाला । तत्क्षण रुद्र भगवान् ने प्रसन्न हो, उसको तुरन्त ही जीवित कर उसे 185 घोर जंगल में आकर वरदान में मिले हुए बल से उद्धत ही दुरासद तथा दूसरों से अभेद्य परम दुर्गस्थान स्थापित कर, कई हजार सेनाओं से परिवृत हो सारे लोक से तंग कर दिया । (१५-१८) चुकृशुः पीडितास्सर्वे विप्राधा प्राणिनस्तदा ।। १९ ।। स तु ज्ञात्वा दुरात्मा च सुदर्शनमहानृपम् । नृप इत्येव तं मत्वा निर्जगाम रणाय सः ।। २० ।। एकामक्षौहिण सेनां गृहीत्वा स शरासन । सन्नद्धः कवची खङ्गी दण्डी परबलार्दनः ।। २१ ।। रथमारुह्य सञ्जश्च सर्वशस्त्रास्त्रभूषितः । ययुश्च तस्य पुरतस्तुरगाश्च महागजाः ।। २२ ।। पदातयश्च सरथा ययुः शस्त्रास्त्रपाणयः 24 सभी ब्राह्मणादि प्राणिधर्ग अत्यन्त पीडित हो रोने लगे । वह दुरात्मा महाराज सुहृशन को एक साधारण राजा ही मात्र समझकर उनसे लड़ाई करने के लिये धनुष-बाण धारण कर, एक अक्षौहिणी सेना ले, कक्व, खड्ग तथा दण्ड धारण कर, शतृ बलाघाती, तैयार रथ पर चढकर, उजे हुए सभी शस्त्रास्त्रों से भूषित हो निकल पड़ा । उसके आगे-आगे घोडे, हाथी, पैदल सेना तथा रथ सेना हाथ में शस्त्रास्त्र धारण किये हुए निकली । (१९-२२) प्रावर्तत महायुद्ध सेनयोरुभयोरपि ।। ।। २३