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188 इस तरह वहाँ दोनों सेनाओं में अत्यद्भुत महाघोर युद्ध हुआ । कोई-कोई बनेचर छपने मुखों से रक्त की धार बहाने लगे । कोई बगल एवं कोई धाथ से विदीर्ण हुआ । कोई पट्टिश से चूर्ण-चूर्ण किया गया तो कोई प्रासों से विदारित हुआ । गिरती हुई ध्वजाओं, हाथियों, घोडों तथा रथों से विमर्दित हो कितने ही उस जङ्गल में पीडित होकर पडे थे। कितने मुद्गरों से आहत होकर पृथ्वीतल पर गिरे थे और क्रितने वनेचर राक्षस परिघों से मथित तथा भिन्दिपालों से विदारित एवं कितने ताडित हो पृथ्वी पर रुधिर में भीगे पडे थे । कतने त्रस्त, नष्ट तथा कितने बगल के बल पडे थे । कितने विभिन्न हृदय तथा कितने त्रिशूलों से विदारित हुए थ । (३४-३८) एव विद्रावितं मैन्यं वनकन त्रिलोक्य तत् । बभूव क्रोधताम्राक्षः सेनाध्यक्षमुवाच ह ।। ३९ ।। 'ज्वालापातं महाशूरं जहि त्वं गच्छ शीघ्रत ' । इस प्रकार सारी सेना को दूर भागते तथा अश्रृंखल होते देखकर वह कानन कर्ता क्रोध से तम्बे के समान लाल-लाल आंखे कर सेनापति महावीर ज्वालापात से कहने लगा कि तुम शीघ्र जाओ तथा मार डाली (३९) इत्याशसस्ततस्तूण ज्वालापात्तः प्रतापवान् ।। ४० !! धनुविस्फारयामास रथस्थः कनकाङ्गदः । सुदर्शनमहाराजः सेनाध्यक्षं सृजन् रुषा ॥ ४१ ॥ बडबाभुखनामानं बडबानलविक्रमम् । जहि त्वं समरे गच्छ शतृसैन्यमशेषतः' ।। ४२ ।। इत्यब्रवीत्नतः सोऽपि निर्गतः सरथस्तथा । शाङ्गभादाय सुमहत्तस्मिन्बाणान्युयोज च ।। ४३ ।। मुमोच च ततः सैन्ये शरसङ्कान्महारथः । शत सहस्रमयुत नराणा बडवाननः ।। ४४ ।।