पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/२११

एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

93 स तु तत्र निवासं च कृत्वा तु बहुभिर्वतः । वेङ्कटादौ तदन्यस्मिन्गिरौ वा काननेऽपि वा ।। १२ ।। तपांसि कुर्वतां विश्यं कुर्वन्प्राणिभयङ्करः । ग्रामे वा पत्तने वाऽपि स्थितान्विप्रादिमानुषान् ।१३ ।। बबाधे सततं तीक्ष्णं तेन देश: प्रपीडितः । श्री वेङ्कट पर्वत की उत्तर दिशा में कोई महासुर, दैत्यश्रेष्ठ, बलदर्पित भेरुण्ड नामक, पर्वत के समान शरीरवाला, प्राचीन समय में ब्रह्म से बर पाकर रहता था । वह वहाँ बहुतों से परिवृत होकर निवास करता हुआ, वेङ्कटाद्रि तथा दूसरे दूसरे पर्वतों एवं जङ्गलों में तपस्या करनेवालों को विघ्र डालता प्राणि मात्र को भय देता हुआ । ग्राम तथा नगरों में बसनेवाले ब्राह्मणादि मनुष्यों को सदा धोर बाधा पहुँचाता था । उस से सारा देश बहुत पीडित हो रहा था । (११-१३) काम्भोजा यवनाश्चापि म्लेच्छाः सङ्करजातिजा ।। १४ ।। भेरुण्डस्य बलोद्रिक्तास्तत्रासन्प्राणिपीडकाः । ते सर्वे पापकर्माणः सम्भूय मुसलायुधाः ।। १५ ।। भेरुण्डमग्रतः कृत्वा सरथाश्वगजास्तदा । युद्धार्थमागतं ज्ञात्वा राजानं च झुदर्शनम् ।। १६ ।। युद्धाय निर्ययुस्सर्वे गदाशक्तिपरश्वधान् । गृहीत्वाङ्कुशपाशाञ्श्च खङ्गाञ्श्च कनकत्सरून् ।। १७ ।। काम्भेज, यवन म्लेच्छ एवं वर्णसंकर से उत्पन्न सभी प्राणिपीडक भेरुण्ड के बल से उत्साहित होकर वही रहते थे । वे सभी पापिगण मुसल धारण किये एकत्र हो, भेरुण्ड को आगे कर, रथों, अश्वों तथा गजों के साथ सुदर्शन को युद्धाथ उपस्थित हुआ जान, गदा, शक्ति, परशु, अंकुश, पाश खड्ग एवं स्वर्ण के कटार धारण कर निकल पड़े । (१४-१७) 25