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चन्द्रसूयाँ तदाऽऽकाशे बनतुर्न च किञ्चन । नक्षत्राणि न भान्ति स्म पेतुरुल्का. सहस्रशः ।। २५ ।। वाति स्म जवनोऽत्यर्थ सह धल्या प्रभञ्जन । चकपे वसुधा कृत्स्ना पेतुः शैलाश्च पादपाः ।। २६ ।। चुक्षुभुस्सागरास्सर्वे नेदुर्भूतानि तत्क्षणात् । युद्धार्थमागता दैत्याः किराताः पुल्कसास्तथा ।। २७ ।। कश्मलोपहतास्सर्वे विषण्णवदनाश्तदा । तत्कोपाग्निसमुत्थश्च पुरुषः परमाद्भुतः । २८ ।। चापी खङ्गी रथी तूर्णी कश्चित्कनकपिङ्गलः । नाम्ना पावकसंकाशः साक्षात्पावकविक्रमः ।। २९ ।। महाप्रभु सुदर्शन उस सारी सेना को नष्ट देखकर, क्रोध से ताम्बे के समान लाल-लाल आँखकर यमराज के समान प्रज्वलित हो उठे। उनके क्रोधित हो जाने पर सभी संसार मलिन, धुन्धला तथा प्रकाश रहित ही गया ! आकाश में चन्द्रमा और सूट उस समय कुछ भी प्रकाश नहीं करते थे । नक्षत्र गण भी नहीं शोभते ये तथा हजार हजार उल्का (नष्ठतारा) पात होने लगे ! वायु अत्यन्त तेजी से अत्यन्त धूलि के साथ बहता था । सारा पृथ्वीमण्डल काम्पने लगा । वृक्ष तथा पर्वत गिरने लगे । सभी सागर क्षुब्ध हो गये। सभी प्राणी चिल्लाने लगे । युद्धार्थ आये हुए सभी दैत्य, किरात तथा पुल्कस सब के सब उस समय धबड़ा गये तथा मलिन मुख हो गये। उसी समय परमाद्भुत चाप, खड्ग, तथा तूणधारी, रथी सोने के समान पीला एवं साक्षात अग्नि के समान विक्रमवाला पावक संकाश नाम का कोई पुरुष उनको क्रोधाग्नि से उत्पन्न हुआ । (२३-२९) स तमाज्ञापयद्राजा 'जहि दैत्यानि ' तीश्वर । पावकः सर्वशस्त्रास्त्रसम्पन्नः समरे बभौ ।। ३० ।।