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36 प्रलयाग्निरिवादित्यसहस्रसन्दशप्रभ । मुमोच वाणवर्षाणि धरसैन्येयु पावकः ।। ३१ ।। विनोदं कारयामास कञ्चिद्विस्मयकारकम् । सम्मोहनार्थ दैत्यानां गान्धर्ब समचोदयत् ।। ३२ ।। मोहिताः परसास्त्रेण त्यतोद्यतवरायुधाः परसैन्यं च तत्सर्व मत्वा स्वजनसार्थगम् ।। ३३ ।। नायुध्यन्त तदा योधा दृष्ट्वा सेनापतिं पुनः । नाम्ना पावकसङ्काशां जनक स्वकुलोद्भवम् ।। ३४ ।। मत्वा सर्वे नमन्ति स्म पतिता वसुधातले । उस भगवान सुदर्शन राज ने उसको आज्ञा दिया कि दैत्यों को मार डालो । युद्ध में वह पावक सभी शस्त्रास्त्रों से सम्पन्न हो, प्रलय-कालीन अग्नि तथा सहस्र रश्भि सूर्य के समान चमकता था । उसने शतृसैन्य पर बाणों की वर्षा की और झूठ विस्मयकारक विनोद किया कि दैत्यों को मोहित करने के लिये गान्धवस्त्र छोडा, जिससे मोहित होकर उन सब योद्धाओं ने उत्तम तथा तैय्यार अस्त्रों को त्याग दिया एवं शत्रुओं की सेना को अपना मानकर युद्ध करना छोड दिया । पुनः पावकसंकाश नामक सेनापति को देखकर सभी अपना वंशोद्भव तथा अपना पिता मान्कर पृथ्बीपर पडकर प्रणाम करते थे । (३०-३४) तद्दृष्ट्वा देवगन्धर्वाः सिद्धविद्याधरादयः ।। ३५ ।। विस्मयं परमं जग्मुः 'साधु साध्वि' ति चाबुवन् । तान्दृष्ट्वा पावकप्रख्यो मोहितानां प्रमापणम् । ३६ ।। अयुक्तमपि तद्दिव्यमुपसंहृतवांस्तदा । उसे देखकर देव, गन्धर्व, सिद्ध, विद्याधर आदि सभी परम विस्मित हुए और साधु ! साधु ! ऐसा कहने लगे । उनको देखकर पावक ने ऐसा समझकर कि मोहितों को मारना अनुचित है, उस दिव्य अस्त्र को वापस बुला लिया । (३५-३६)