पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/२१६

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उसे देखकर मन्त्र से अभिमन्त्रित कर सबको विस्मय करनेवाले परम धोर पिशाचास्त्र को छोड़ा । तब म्लेच्छा-दैत्यादि सभी शतृ-भूत-प्रेत तथा पिशाचों से ग्ररूक्ष हो अपने ही में एक दूपरे को खाने में भ्रामक्त होकर शीघ्र नष्ट हो गये । (४२-४३) स्वसैन्यं निहतं दृष्ट्वा निःशेपं युद्धभूमिषु गृहीत्वा पावकप्रख्यमभिदुद्राव संयुगे । योजनत्रितयोत्सेधः कम्पयन्मदिनीं तदा । ।। ४५ ।। तब भेरुण्ट अपनी सारी सेना को युद्ध-भूमि में मा देखकर बहुप्त क्रोधित हुआ और परम दारुण शल लेकर युद्ध में पावकसंकाश पर तीन योजन ऊँचा वढ़कर पृथ्वी को कम्पाते हुए दौडा । वायव्यमस्त्रं प्रयुङ्क्त पावकाचिस्समप्रभः । भ्रामयामास वात्येव तृण पर्वतसन्निभम् ।। ४६ ।। प्रदक्षिणं कारयित्वा वेङ्कटाद्रेश्च दानवम् । पुनरुत्क्षिप्य तं दैत्यमाकाशे दशयोजनम् ।। ४७ ।। (४४-४५) पातयामास भूमौ तद्वायव्यं परमाद्भुतम् । जीर्णकूष्माण्डवद्भूमौ स शीर्णः पर्वतोपमः ।। ४८ ।। अग्निज्वाला के समान उस सेनापति पावक ने वायव्यास्त्र प्रयोग किया । बवण्डर जैसे घास को घुमा देता है वैसे ही उस परमाद्भुत वायव्यास्त्र ने उस पर्वत समान दैत्य को वेङ्कटपर्वत की प्रदक्षिणा करवाकर, पुनः उसको दश योजन ऊपर आकाश में उठा पृथ्वी पर पटक दिवा । वह पर्वतोपम दैत्य पके कोहड के समान पृथ्वीपर फटकर टुकडे-टुकडे हो गया । (४६-४८) एवं निहत्य तं दैत्यं कृत्वा देशमकण्टकम् । वनदुर्गाणि सर्वाणि खिलीकृत्य तदा जनान् ।। ४९ ।।