200 सुदर्शनमहाराजः सहस्रभुजमण्डितः आज्ञां वेङ्कटनाथस्य कृत्वा सम्यक्प्रतापवान् ।। ५७ ।। जयमङ्गलघोवैश्च कुसुमोत्करवृष्टिभि सर्वसैन्यैश्च संयुक्तः सर्वाभरणभूषितः । प्रविवेश विमानं तद्वेङ्कटेशस्य मङ्गलम् ।। ५८ ।। अपनी सेना के मरे हुए वीरों को पुनः जीवित कर सुदर्शन ने उस देश को श्री बेङ्कटेश की आज्ञा से सुखी तथा निबध कर दिया । ! समय पर वर्षा बरसने लगी तथा सब वृक्ष एवं सस्य उस समय सुतरां बूव फलने लगे । सभी मनुष्य नीरोग हो गये । कहीं दुष्टों की बाधा न रही और सभी उस वेङ्कट नामक देश को देख यह तर्क करने लगे कि क्या यह वैकुण्ठ है अथवा कोई अन्य स्वर्ग है? यह क्या है? स्वर्गवासी देवगण भी उस जगह जन्म लेने की इच्छा करने लगे । परम प्रतापी, सहस्र भुजवाले, महाराज श्री सुदर्शन प्रभु ने श्री वेङ्कटेश भगवान की आज्ञा पूरी तरह प्रतिपालन कर, जय तथा मङ्गल घोषों के साथ फूलों की अविरल वृष्टि के बीच सव सेना से युक्त तथा सभी आभूषणों से सुशोभित होकर श्री वेङ्कटेश भगवाग के परम भंगलमय विमान में प्रवेश किया । (५३-५८) इति वाराहपुराणे श्रीवेङ्कटाचलमाहात्म्ये सुदर्शनस्य अधुरवधार्थमुत्तर दिग्गमनादिवर्णनं नाम सप्तपञ्चाशोऽध्यायोऽत्र पञ्चविंशः ।
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