पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/२२

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यथापूव जगत्स्रष्टुमुद्युक्तः सवशात्तमान् । सर्वस्य धाता प्रवरो महात्मा सर्वात्मगः सर्वजगत्स्वरूपः । सर्वेश्वरः सर्वविधानयत्न चकार बुध्या तरुणाम्बुजाक्षः ।। १६ ।। इतीरितास्ते मुनयस्तदानीं सविस्मयोत्फुल्लहृदम्बुजाश्च । सूतं महान्तं मुनिसङ्कसेव्यं तमवबुन् वेदविदां वरिष्ठम् ।। १७ ।। कल्पादि काल में सभी समुद्रों का एक होकर जलमय जाने पर विष्णुभगवान वट के पत्ते का आश्रय लेकर महलॉक में आश्रित रह जल के महाप्रलय में हजारों युगपर्यन्त अद्भुत जलस्थान पर चिंतन करते हुए रहने लगे । (१४-१५) सर्वशक्तिमान भगवान संसार की रचना यथापूर्व करने का उद्यत हुए। सबको धारण करनेवाले, सर्वं श्रेष्ठ महात्मा, सबों के आत्मस्वरूप, सबके स्वामी सबके विधाता, नवीन कमल के समान आंखवाले, भगवान ने अपने मन में सृष्टि रचना का बिचार किया । यह सुनकर वे मुनिगण आश्चर्य एवं आनन्द से भरकर वेदों में श्रेष्ठ, मुनिवगीं से सेवित महात्मा सूतजी से बोले । (१६-१७) मुनय ऊचुः--- 'अतीतानागतज्ञानप्रकाशितहृदम्बुज ! । उद्योगानन्तरं विष्णुः कृतवान् किं रमापतिः ।। १८ ।। कीदृशः प्रलयः कल्पः सगों वा कीदृशः पुनः । एतावद्वा जलं कस्मादागतं वद सुव्रत ! ।। १९ ।। कुत्र वा धरणी याता गिरयो वा महोन्नताः । तत्सत्र शस भगवन् ! श्रातु कातूहल हि नः ।। २० ।। इति पृष्टः पुनः प्राह सूतस्तान् मुनिपुङ्गवान् । मुनियों ने कहा-हे महामुनि, हे अनन्त, भूत और भविष्य ज्ञान से प्रकाशित हृदयवाले ! रमापति भगवान विष्णु ने इसके उपरांत कौन सा. उद्योग किया ? किस प्रकार का प्रलय था ? कैसा कल्प था तथा किस प्रकार का सर्ग हुआ था ?