पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/२२०

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2002 वक्तुमर्हसि तत्सर्वं शृण्वतां नो महामुने । इति पृष्टोऽब्रवीत्सूत: कथां श्रीवेङ्कटेशितुः ।। ४ ।। मुनिगण बोले-श्री वेङ्कटेश के दिव्य रसायन रूप कयामृत को पीनेवाली हम लोगों की तृप्ति नहीं हुई, अधिक तृष्णा और भी बढ़ गयी । हे गहामुनि ! प्रत्येक कलियुग में श्री वेङ्कटाद्रि शिखामणि कैसे रहेंगे तथा उनकी कौन पूजा करेगा । उनका वरदान कैसा होता ! इन सभी बातों को आप हम श्रोताओं ने कहिये । ऐसा पूछने पर श्री सूत जी श्री वेङ्कटेश की कथा कहने लगे । (२४) श्रीसूत उवाच - सन्धावपि कलेश्चैव वेङ्कटेशस्य वर्तनम् । ततःपरमियान्भेदो मौनं तत्रैव तु स्थितिः । ५ ।। अचांबतारवद्भूयान्नराणां मांसचक्षुषाम् । वैकुंठादागतं दिव्यं विमानं तु तिरोहितम् ।। ६ ।। विमानमानं तु कला कारयिष्यन्ति मानवाः । पुण्यशीला महात्मानः कदाचित्क्षत्रसम्मताः ।। ७ ।। कदाचित् ब्राह्मणाः पुण्याः कदाचिद्वाल्लवानराः । अचर्चावतार इत्येवं वदिष्यन्ति च मोहिताः ।। ८ ।। तथैवावमति केचित्करिष्यन्ति कलौ युगे । धीसूत जी बोले-कलियुग की सन्धि पर्यन्त तो श्री वेङ्कटेश जी की स्थिति इसी प्रकार रहेगी । परन्तु इतनी ही विशेषता होगी कि उनको घहा मौन होकर रहना होगा, स्थिति तो वही रहेगी। वे मांस चक्षुवाले मनुष्यों को केवल अर्चावतार वत (शिलादि-भूर्ति-रूप) ही मालूम पडेंगे। वैकुण्ठ से आया हुआ दिव्य विमान ती अन्तर्धान हो गया है । कलियुग में पुण्यवान मनुष्यगण भगवान का क्षत्र-सम्मत विमान भात्र बनावेंगे । कभी ब्राह्मण तथा कभी वल्लव लोग