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2007 सुवर्ण शिखर युक्त वेङ्कटाचल अप्राकृतिक होता हुआ भी कलियुग में पृथ्वी पर प्राकृत पर्वत के समान रहेगा । सर्वात्मक परमात्मा रमाझीश श्री वेङ्कटेश भगवान में अन्य धर्मो में प्रवेश किये हुए लोगों की भी भक्ति होगी । (३३-३४) एवं कृत्वा पराम्भक्ति भविष्यन्ति च पावना । भक्तिमन्तं परो दृष्ट्वा भक्ति गच्छेद्धि केशवे ।। ३५ ।। तथा दृष्टफलार्थ च भजमानाय सादरम् । दृष्टप्रदं वेङ्कटेश दृष्ट्वा तं तु व्रजेत्पुनः ।। ३६ ।। सोऽपि दृष्टफलं लब्ध्वा वरान िशतं भजेत् । इस तरह पराभक्ति करते करते मनुष्य पवित्र हो जायेंगे । दूसरे भक्ती को देख भगवान केशव में दूसरों को भी भक्ति उत्पन्न होगी तया ऐहिक धन धान्यादि फल के लिये आदर के साथ भगवान का भजन करनेवाले को श्री वेङ्कटेश भगवान को ऐहिक फल देते देख दूसरा भी उस भगवान के पास जायगा । वह (दूसरा) ऐहिक फल लाम कर सैकडों वरदान भी पावेगा । (३५-३६) चित्रं कलियुगे श्रीशो विहरिष्यति भूधरे ।। ३७ ।। अत एव 'कलिःसाधुः साधुः शूद्रश्च योषितः । विशेषाद्वेङ्कटाधीशसेवनं साधुभूषणम्' ।। ३८ ।। इत्येवं मुनयो देवा वदिष्यन्ति कलौ युगे । बडा ही आश्चर्य है कि कलियुग में लक्ष्मीपति भगवान पर्वत पर विहार करेंगे । इसलिये कलियुग धन्य है । तथा शूद्र एवं स्त्रिया भी धन्य-धन्य है । विशेष कर श्री वेङ्कटेश जी का सेवन ही साधुओं का भूषण है। ऐसा कलियुग में मुनि और देवता लोग कहेंगे । (३७-३८) कलिदोषपरीतानां नराणां पापकर्मणाम् ।। ३९ ।। वेङ्कटेशात्परो देवो नात्स्यन्यः शरणं भुवि । वेङ्कटेश समो देवो नास्ति नास्ति महीतले ।। ४० ।।