पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/२२८

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210) व्यासप्रसादात्तान्धर्मान्वेदायहं मुनिसत्तमाः । सङ्ग्रहेण प्रवक्ष्यामि गोप्याद्गोप्यत्रानपि ।। ५ ।। श्री मूतजी बोले-हे तपोधनो ! मैं संक्षेप में कहूँगा आप सब युने । प्रवेत वराह ने पाताल से भूमि का उद्धार कर श्री वेङ्कट नामक पर्वत पर पृथ्वी देवी के पूछने पर बैष्णवों का जो जी मनोहर धर्म पहले कहा था, हे तपोधन मुनिसत्तमो ! व्यास जी के प्रसाद से उन सभी धर्मो को मैं जानता हूँ । उन्ही गोप्य से गो-यतर धर्मो को संक्षेप में मैं कहता हूँ । (३-५) तेषां वैष्णवधर्माणां विश्वासस्तु परा गतिः । यात्रानपि च विश्वासस्तावती सिद्धिरीरिता ।। ६ ।। गुरुरेव परो धर्मो गुरुरेव परा गतिः । पापं क्षपयति क्षित्रं गुरुरेवात्मभावनः ।। ७ ।। तस्मात्सर्वप्रयत्नेन विश्वसेत्परमं गुरुम् । उन वैष्णव धर्मों में विश्वास ही परागति है। जितना ही उनमें विश्वास हो उतनी ही सिद्धि कही गई है । गुरु ही परो धर्म है; गुरु ही परा गति है । आत्म स्वरूप का बोध करनेवाले गुरु ही पाप का शीघ्र नाश करते हैं। इसलिये सभी यत्न से परमगुरु का विश्वास करना चाहिये । (६-७) तत्पापं तद्गुरुर्हन्ति तत्पापं तद्गुरुर्हरेत् ।। ८ ।। पारम्पयक्रमाद्वष्णुः सवपापहरा गुरु । कारुण्यमूर्तिः श्रीविष्णुर्गुरुरूपी च पापिन ।। ९ ।। शास्त्रहस्तेन संसारमग्नानुद्धरते जनान् । न्यायविच्छास्त्रवेदी च धर्माधर्मविवेकवान् ।। १० ।। तपोनिष्ठो ब्रह्मनिष्ठस्तपस्वाध्ययने रतः । निर्ममो निरहङ्कारश्शान्तो दान्तो विमत्सरः ।। ११ । गुरुरित्युच्यते यस्तु परार्थेकप्रयोजनः ।