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21 उसके पापों को उसका गुरु हरता है, और उस गुरु के पापों को गुरु के गुरु नाश करते हैं; इसी तरह श्री विष्णु भगवान परम्परा ऋाप्त से सभी पापों को हरनेवाले परमगुरु हैं । कृपा की मूर्ति श्री विष्णुभगवान गुरु रूप धारण कर शास्त्र रूपी हाथों से संसार सागर मग्न् पापियों को उद्धार करते हैं । जो न्याय जानने वाले, शास्त्रवेत्ता, भ्रमधर्म में विवेक रखनेवाले, तपोनिष्ठ, वेदनिष्ठ, ब्रह्मनिष्ठ तपस्या तथा स्वाध्याय में निरत रहनेवाले, ममतारहित अहंकार शून्य, शान्त, दान्त, भत्सरहीन, परोपकार ही एक मात्र प्रयोजनवाले हों वही यथार्थ गुरु कहलाते हैं। (८-११) भीतः संसारदात्रेभ्यः शान्तो दान्तश्शुचिर्बुधः ।। १२ ।। अतः परमनिविण्णो निर्वेरः सर्वजन्तुषु । समाश्रयेद् गुरुं भक्त्या महाविश्वासपूर्वकम् ।। १३ ।। निक्षिपेत्सर्वभारांश्च गुरोः श्रीपादपङ्कजे । नित्यनैमित्तिके कुर्वन्यथाशक्ति भयाद्धरेः ।। १४ ।। भोक्षार्थ निर्भरस्तिष्ठेन्मन्त्रान्तरविवर्जित । साधनान्तरहीनश्च द्वयानुष्ठानतत्परः ।। २५ ।। नाष्टाक्षरात्रो मन्त्रो नास्ति नारायणात्परः । नास्ति न्यासात्परो योगो ब्रवीति च तथा श्रति ।। १६ ।। एवं हि वर्तमानस्य देहान्ते परमं पदम् । अत एव संसार रूपी दावानल से डरनेवाले को शान्त, दान्त (इन्द्रिय दमन करनेवाला) पवित्र, बुद्धिमान, संसार से पूर्ण विरक्त, प्राणिमात्र से वैर रहित ही महा विश्वास पूर्वक भक्तिभाव से अपने उस गुट का आश्रय लेना चाहिये । भगवान के भय से नित्य तथा नैमित्तिक (दोनों) कमों को यथा शक्ति करता हुआ, दूसरे का अनुष्ठान नहीं करता हुआ, अन्यमन्त्रों तथा अन्य साधनों से रहित एवं निश्चिन्त होकर मोक्ष के लिए निर्भर हो, शिष्य अपने सभी भारों को श्री गुरु के चरण कृमल में निवेदन करे । वेद ऐसा कहते हैं कि अष्टाक्षर से परे मन्त्र नहीं,