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212 नारायण से धढ़पार कोई दूसरा नहीं, तथा सुन्धास से परे कोई योग नहीं है। इस तरह से बर्तनेवाले को इस शरीर के अन्त में परमपद प्राप्त होता है । (१२-१६) यासविद्यापरथैव वर्तते परमार्थवित् ।। १७ ।। ध्याननिष्ठश्च लध्वाशी वैराग्यं परमाश्रितः । अहङ्कारविहीनश्च यतवाक्कायमानस ।। १८ ।। सर्वेन्द्रियाणि संन्यस्य विविक्तं स्थलमाश्रितः । बलदर्पविहीनश्च कामक्रोधविवर्जितः ।। १९ ।। शान्तश्च निर्ममश्चापि परिग्रहविवर्जितः । कल्पते ब्रह्मभूयाय ब्रह्माध्यानस्य वैभवात् ।। परमार्थ जाननेवाला इस तरह न्यास विद्या में तत्संर, ध्यान में निष्ठा रखने घाला, हल का भोजन करनेवाला, उत्तम वैराश्य में लगा हुआ, अहंकार रहित, मन, वचन तथा काय को वश में रखनेवाला, सभी इन्द्रियों को संयम कर एकान्त स्थानवासी ही, बल के अभिमान से रहित, कामक्रोधादि रहित, शान्त, ममतारहित तथा सङ्ग रहित होता है, वह ज़ह्म ६धान के प्रभाव से ग्रह्मभाव पाने का अधिकारी होता है । (१७-२०) ब्रह्मभावं गतस्यास्य प्रसन्न मानसं भवेत् । तस्य शोको न चेच्छा व सर्वभूतसमो भवेत् ।। २१ ।। हरिभक्तिर्भवेत्तस्य भक्त्या जानाति केशवम् । भगवत्तत्वयाथात्म्यं वेत्ति पश्चात्प्रसन्नधीः ।। २२ ।। ततः परमसङ्गाच्च विष्णोः सायुज्यमश्नुते । ब्रह्मभाव को प्राप्तुं हुआ इस मनुष्य का मन प्रसन्न हो जाता है । न उसके शोक होता है न इच्sा ही उत्पन्न होती है। सभी जीवों में वह सम बुद्धि हो जाता है । उसको भगवान की शक्ति हो जाती है। उस भक्ति से वह परमात्मा