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213 को जान जाता है। पीछे वहीं भगवान के तत्व को जानता है । पश्चात प्रसन्न एवं निर्मल बुद्धि सम्पन्न होता है। फिर व विष्णु के सङ्ग से विष्णुभगवान का सायुज्य या भुक्ति पाता है। (२१-९२) न्यासविद्यानिविष्टस्य कर्मणां त्याग इष्यते ।। २३ । त्यागश्च फलतः प्रोक्तः स्वरूपेण न च क्वचित् । कर्मणो निथतस्यैव त्यागो वै मोहभूलकः ।। २४ ।। कर्माणि त्यजतः पुंसो नास्ति देहस्य धारणम्। यज्ञादीनां त्यक्तसङ्गः कुर्यात्कर्माण्यशेषतः ।। २५ ।। व्यासविद्या में संलग्न मनुष्यों के लिए कर्मों का त्याग कहा गया है । किन्तु स्वरूप से कभों का त्याग कहीं भी नहीं होता, त्याग फक्ष से ही कहा गया है। नित्य कभओं का त्याग मोहमूल ही होता है। कनों को छोडने से भनुष्यों का वेहधारण भी नहीं हो सकता । अत एव प्राणिमात्र सङ्ग अथति फल की आशा छोड़कर यज्ञादि अशेष कर्म को करते रहें । सृष्ट्वा यवान्प्रजाश्चापि प्राह ब्रह्मा चतुर्मुखः । यज्ञ एव परो धभ भगवत्प्रीतिकारकः ।। २६ ।। अभीष्टकामधग्यज्ञस्तस्माद्यज्ञ: परा गतिः । तस्माचल प्रजाः सर्वाः कुर्युस्सङ्गविवर्जिताः ।। २७ ।। (२३-२५) थशैः प्रीतो हरिः सर्वमभीष्टं च प्रयच्छति । लब्धाऽभीष्टं वरं तस्माद्यज्ञ कुर्यान्नचेत्पुनः ।। २८ ।। स्तेन एव स विज्ञेयः सर्वकर्मबहिष्कृतः । चतुर्मुख श्री ब्रह्माजी ने यज्ञों तथा प्रजाओं की रचना कर उनसे कहा कि भगवान को प्रसन्न करनेवाला यज्ञ ही परम भ्रर्म है । यज्ञ अभीप्ट एवं कामनाओं के लिये काभधेनु के समान है, इसलिए यज्ञ ही परापति है । इसलिये सभी प्रजा