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214 फल का भाग रहित होकर यज्ञ करे, यज्ञों से प्रसन्न होकर भगवान सब अभीष्टों को प्रदान करते हैं । यदि उनसे सर्वाभीष्ट या वरदान पाकर भी पुन: यज्ञ न करे तो वह सभी कम से बहिष्कृत भारी चोर है । (२६-२८) ततः कर्म च कर्तव्यं फलसङ्गविवर्जितम् ।। २९ ।। कर्मणैव पुरा केचित्पररां सिद्धिमितो गताः । भगवत्सत्त्वनिष्ठस्थ तदाज्ञालङ्कनं महान् ।। ३० ।। दोषस्तदाज्ञा वेदाश्च स्मृतयो धर्मसङ्ग्रहाः । आज्ञानुवर्तनं पुंसामादौ कार्य हि सर्वदा ।। ३१ ।। अतः फल की आशा छोड़कर कार्य करना चाहिए । पहले कितनों ने जनकादि कर्म से ही परभसिद्धि प्राप्त की है । भगवान के तत्वों में निष्ट लोगों को उनकी आज्ञा का उल्लंघन करना महान दोष है । वेद, स्मृतियाँ और धर्म शास्त्र सब उनकी आज्ञा हैं। उनका सर्वदा अनुवर्तन अथवा पालन करना ही पुरुषों का कार्य है । (२९-३१) हरौ सर्वाणि कर्माणि संन्यसेद्योगवित्तमः । निर्ममो नित्यतृप्तश्च भगवद्ध्यानमाश्रितः ।। ३२ ।। सुखदुःखे समे कृत्वा लाभं हानिं जयं तथा । पराजयं च शीतोष्णं मानं चाप्यवमानकम् ।। ३३ ।। सर्वत्रगं परं ब्रह्म ध्यायन्सन्ततमात्मनि । प्रातरारय कर्माणि कुर्वन्निज्यादिकं तथा ।। ३४ ।। भगवद्भक्त, ममता रहित िनत्यतृप्त,सन्तुष्ट के में , पूर्ण भगवान ध्यान लीन सुख-दुःख, लाभ-हानि, जय-पराजय, शीत-उष्ण, मान अपमान सब को समान समझकर सर्वव्यापी परमब्रह्म का आत्मा में निरन्तर ध्यान करते हुए, प्रातःकाल से लेकर भगवल्लूजादि कम को करते हुए योगिवर्ग सभी कामों को भगवान के समर्पण करे । (३२-३४)