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217 श्रीसूत जी बोले-पर तथा अपर दो प्रकार के ब्रह्म जानने योग्य है । क्षर तथा अक्षर रूप जीव ही अपर ब्रह्म है ! सब चराचर प्राणिमात्र क्षर है और अक्षर तो कूटस्थ प्रकृति है। परम ब्रह्म की सर्वात्मा, परमात्मा आदि नामों से पुकारा जाता है। वही सम्पूर्ण लोकों को पलता तथा सभी के भीतर प्रवेश कर सब का शासन करता है जो अब्थयनित्य तयः ईश्वर है वही पुरुषोत्तम हैं। वह जिस कारण से क्षर तथा अक्षर दोनों के परे हैं, इसीलिए संसार में पुरुषोत्तम रूप से प्रसिद्ध हैं। जो मनुष्य इस प्रकार के पुरुषोत्तम को जानता है वही तत्वज्ञानी तथा सर्वज्ञ है। वही मनुष्य समाधि योग से श्रीर्वेकटेश भगवान का भजन कर सकता है। (१-५) यस्तु वेदविदां श्रेष्ठो योगमारभ्य बुद्धिमान् । यमं च नियमं चैव पीठभेदांस्तथैव च ।। ६ ।। अथ अष्टाङ्ग योग निरुपण प्राणायामांश्च विविधान्प्रत्याहारं च साधयेत् । धारणं ध्यानभेदांश्च स समाधि प्रसाधयेत् ।। ७ ।। जो वेदज्ञों में श्रेष्ठ, बुद्धिमान योग को आरंभ करके, यम, नियम, आसनों एवं प्राणायाभों के विविध भेदों इत्याहार, ध्यान तथा धारण की साधना करता है कही समाधि की साधना कर सकता है । (६-७) यमादिध्यानपर्यन्ताः समाधेः सिद्धिहेतवः । समाधिस्वाङ्गसहितस्त्वष्टाङ्गो योग उच्यते ।। ८ ।। कुर्याद्धि प्रत्यहं योगमेतावदिति निश्चयः । यम से लेकर ध्यान पर्यन्त सभी समावि सिद्धि के कारण है। अपने सभी अङ्गों के साथ समाधि ही अष्टाङ्ग योग कही जाती है। प्रति दिन इतना ही योग करना चाहिए, ऐसा निश्चय है । (८-९) 28 निषिद्धाचारतः पुंसो निवृत्तिर्यम उच्यते ।। ९ ।।