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248 स्वाध्यायो नियमः प्रोक्तः स्वस्तिकाद्यासनं विदुः । रेचकः पूरकश्चापि कुम्भकश्चेति विश्रुतः ।। १० ।। प्राणायामस्त्रिधा प्रोक्तः प्रत्याहारः स कथ्यते । वित्तोपसंहृतिर्या तु विषयेभ्यश्च योगिनः ।। ११ ।। आत्मन्येवात्र मनसः स्थापनं धारणं स्मृतम् । तैलधारावदच्छिन्नज्ञानसन्तानलक्षणम् ।। १२ ।। ध्यान स्यादात्मावज्ञान ज्ञातृज्ञयाभदात्मकम् । ज्ञातुज्ञेयस्य बुद्धेश्च भेदज्ञानं यदा न हि ।। १३ ।। परमानन्दजनने परानन्दे चिदात्मनि । मनो यदा महायोगं समाध्रिगीयते तदा ।। १४ ।। एवमभ्यस्य मेधावी पञ्चकालपरायणः । तत्तत्कालविधानोक्तमाचारं च समाचरेत् ।। १ पुरुष के निषिद्धावार से निवृत्ति अयया त्याग ही यम कहलाता है । स्वाध्याय ही नियम कहलाता है । स्वस्तिकादि आसन ही आसन कहे जाते हैं । रेचक, पूरक, तथा कुम्भक यह जो सुना है उसी को तीन प्रकार का प्राणायाम कहा गया है । योगियों की वित्तवृत्ति का विषयों से उपसंहार ही प्रत्याहार कहलाता है और अपनी आत्मा में ही मन की जो स्थापना है ऋही धारणा कही जाती है। तेल की धारा के समान अविच्छिन्न ज्ञानधारा का नाम ध्यान है, जिसमें ज्ञाता, ज्ञान तया ज्ञेश ऐसा भेद रहता है । जब ज्ञाता, ज्ञान और शेब इस प्रकार भेद ज्ञान नहीं रह जाय, परमानन्द को उत्पन्न करनेवाले, एरानन्द चैतन्य रूप परमात्मा में जब मन बिलकुल लग जाय तब वही महायोग समाधि बहुलाता है। इस प्रकार बुद्धिमान पञ्चकाल परायण होकर अभ्यास करता हुआ इन उन समयों के कर्तव्य छाचारी का आचरण करें। (१०-१५)