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221 शरीरेण समं कुर्यात् न्यूनं वा वायुमात्मनि । एवमभ्यासयोगेन वज्रकायो भवेन्नरः । कालमृत्यू विनिर्जित्य जीवेदाचन्द्रतारकम् ।। ३० ।। उनके संकल्प से चन्द्रबिंब से चूता हुआ अन्तर बाहर सब जगह अपना शरीर व्याप्त है। ऐसी भावना करे। पीछे सुषुम्ना मार्ग से धीरे-धीरे नीचे उतारकर प्राणादि वायवों को अपने अपने उन उन स्थानों में जैसे पहले थे वैसे ही ज्यों के त्यों रख दे । इसी प्रकार प्रतिदिन तीनों संध्या, प्रातः, मध्याह्न तथा सायं और अर्धरात्रि में करता हुआ, विना हाथ के ही आत्मा में वायु को धारण करे । शरीर के ऊपर बारह अंगुल तक निकलते हुए वायु को शरीर में ही सम अथवा कम कर दे । इस प्रकार के योगाभ्यास से मनुष्य वज्रकाय हो जाता है तथा कालमृत्यु को भी जीतकर चन्द्र तथा तारों की स्थितिपर्यन्त जीवित रहता है। (२६-३०) सनकसनन्दनतीर्थमाहात्यम् अस्य योगस्य विघ्नाश्रेद्भवन्ति बहवो भुवि । अविज्ञायोगसिध्यर्थ वेङ्कटाह्वयभूधरे ।। ३१ ।। अस्ति किञ्चित्सरः पुण्यं नाम्ना सनकनन्दनम् । उत्तरे पापनाशस्य क्रोशाधे सिद्धसेविते ।। ३२ । अतिगोप्यं न तत्केऽपि जानन्ति मनुजा भुवि । मार्गशीर्षे सिते पक्षे द्वादश्यामरुणोदये ।। ३३ ।। स्वामिपुष्करिणीतीरे स्नात्वा नियतमानसः । त्रयोदशीं समारभ्य स्नायात्सनकनन्दने ।। ३४ ।। स्नात्वा तु तत्र विमली वेङ्कटाद्रिपतेः पुनः । श्रीमदष्टाक्षरं मन्त्रं जपेदयुतमन्वहम् । पश्चात्समभ्यसेद्योगं ततः सिद्धो भविष्यति ।। ३५ ।।