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224 धमशास्त्र सदा पश्यत् गुरुशुश्रूषण रतः । गृहस्थः स्वेषु दारेषु रमेद्योगी जितेन्द्रियः ।। ४६ ।। साधूनेव सदा योगी पच्छेद्वै हितमात्मन । विचारयेच्च वेदार्थान्सदा वेदान्तमभ्यसेत् ।। ४७ । बहुनेह किमुक्तन विहितं नैव सन्त्यजेत् । निषिद्ध नानुतिष्ठेद्धि सारोऽयं तत्त्वसङ्ग्रहः ।। ४८ ।। पापी अवश्य नरक में गिरता है तथा पुण्यात्मा निश्चय ही सुख पाता है, इसमें संशय नहीं-ऐसा जानकर योगी श्री वेङ्कटनायक भगवान का चित्त में सदा चिन्तन करे। गुरुसेवा में निरत रहकर धर्मशास्त्रों को सदा देखा करे । योगि यदि गृहस्थाश्रम वासी हो, तो जितेन्द्रिय होकर अपने ही स्त्री से रमण करे तथा साधुओं से ही सदा अपनी हितवात पूछता रहे ! वेदों तथा वेदान्तों का अर्थ सदा विचार करता रहे विशेष यहा कहने से क्या होगा? शास्तों में विहित कमों को कभी न छोडे तथा धर्मशास्त्रों में निषिद्ध कभ को कभी न करे । यही धमों का सार या तत्व का संग्रह है। (४४-४८) इति श्रोवाराहपुराणे श्रीवेङ्कटाचलमाहात्म्ये अष्टाङ्गयोगस्वरूपादि वर्णनं नाम षष्ठितमोऽध्यायोऽत्राष्टाविंशाः ।