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225 ऊनत्रिंशोऽध्यायः मुनय ऊचुः :- सूत ! सर्वार्थतत्त्वज्ञ ! सर्ववेदान्तपारग ! येन चाराधितः सद्यः श्रीमद्वेङ्कटनायकः ।। १ ।। श्रीवेङ्कटेशष्टोत्तरशतनामावलिः भवत्यभीष्टसर्वार्थप्रदस्तद्ब्रूहि नो मुने !' । इति पृष्टस्तदा सूतो ध्यात्वा स्वात्मनि तत्क्षणात् । उवाच मुनिशार्दूलान् श्रूयतामिति वै मुनिः ।। २ ।। श्री वेङ्कट भगवान का, अष्टोत्तर शतनाम ! पूरक सर्वाभीष्ट के, मुक्ति धर्म धन काम ।। १ ।। शेष कथित यह कपिल से सुना सूत सर्वज्ञ । तेहि पुनि मुनि वृन्दन कही, नाम ईश परमज्ञ ।। २ ।। 29 मुनियों ने कहा-सर्वार्य तत्वज्ञ, सर्व वेदान्त पारंगत हे सूत जी ! जिसकी आराधना करने से सर्वाभीष्ट तथा सकल कामनाए पूर्ण होती है, उन्ही श्री वेङ्कटेश मगवान के विषय में कहिये। यह सुनकर श्री सूतजी ने कुछ देर तक आत्मध्यान कर मुनि शार्दूलों से कहा कि हे मुनियो ! आप सब ध्यान पूर्वक सुने । (१-२) श्री वेङ्कटेशाष्टोत्तरशतनामावलि सुत उवाच :- अस्ति किञ्चिन्महोप्यं भगवत्प्रीतिकारकम् । पुरा शेषेण कथितं कपिलाय महात्मने ।। ३ ।। नाम्नामष्टशतं पुण्यं पवित्रं पापनाशनम् । आदाय हेमपद्मानि स्वर्णदीसम्भवानि च ।। ४ ।।