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238 का घोष बारम्बार करते हुए भागीरथी पार कर पीछे गौतमी-कृष्णवेणी का आदि उन स्थानों की महानदियों में स्नान कर तप्त स्वर्ण का बना हुआ सर्वतीर्थमय पवित्र, सभी सिद्धों से सेवित भन्द-मन्द मयूर की ध्वनि से मुखरित, दिव्य झरनापूर्ण, फल, फूल, द्रुमादि से भरा हुआ, परम मनोहर तथा शोभायमान वेङ्कटाद्रि पर आकर, श्री सूतोक्त सेवाक्रम को न छोड़कर श्री वेङ्कटेश की परम पावनी सेवा करने लगे । । (१७-२२) स्नानं भन्त्रैश्च कुर्वन्तो निर्शरेषु सरस्सु च ।। २३ ।। पश्यन्तस्तानि रम्याणि सानूनि मणिमन्ति च । शृण्वन्तः श्रोवरम्याणि पक्षिणां वचनान्यपि ।। २४ ।। गायन्तः सामगानानि पठन्तः स्तुतिसञ्चयम् । नृत्यन्तस्सम्भ्रमात्सर्वे क्ष्वेलन्तश्च तपोधनाः ।। २५ ।। उत्पतन्त: पतन्तश्च हृषवेिशवशं गिरिप्रदक्षिणं सम्यक्कुर्वन्तस्ते शनैः शनै ।। २६ ।। स्नात्वा च दष्टवा गिरिम् । कापिलतीर्थे नत्वा शिवं आरुह्य मेरुशृङ्गाभं सिद्धगन्धर्वसेवितम् ।। २७ ।। अत्यद्भुताद्रलसानोर्हमाद्रेरद्भुतो गिरिः । अयं ह्यभूतपूर्वो हि श्रीमद्वेङ्कटभूधरः ।। २८ ।। इति ब्रुवन्तस्ते सर्वे ददृशुर्दिव्यमुत्तमम् । उन लोगों ने झरनों तथा तालाबों में मन्त्र पढ़-पढ़ कर स्नान करते-करते ऊँच ऊँचे शिखरवाले मणिमय रम्य पर्वतों को देखते देखते कणनन्द दायक मधुर चिढियों के मीठे गानों को सुनते-सुनते, सामगान गाते-गाते अनेक स्तुति पाठ करते करते, सम्भ्रमवश सभी नांवते-नाचते, लोटते-लोटते आनन्दवश होकर उछलते पड़ते, धीरे-धीरे पर्वत की प्रदक्षिण करते, कपिलतीर्थ में स्नान कर शिवगिरि को देख तथा प्रणाम कर, सिद्धगन्धर्व सेवित मेरु के समान उस पर्वतपर चढ़, अत्यद्भुत