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240 अत्यतिष्ठद्विश्वतो ये व्याप्य भूमिं दशाङ्गुलम् । भूतं भव्यं च यद्व्याप्तं तस्मै ते विष्णवे नमः ।। ३५ ।। पादो विश्व त्रिपाद् व्योम यस्य तस्मै नमो नमः । ऋचः सामानि यस्मात्तु जज्ञिरे तुरगास्तथा ।। ३६ ।। विप्रो मुखाद् भुजो राजा वैश्यश्चोर्वोरनन्तरम् । शूद्रः पद्भयां मुखादग्निरिन्द्रश्च मनसो विधुः ।। ।। ३७ नेत्रात्सूर्योऽय सञ्जज्ञे तस्मै ते ब्रह्मणे नमः । इयतया गुणानां ते निवर्तन्ते न मानवाः । बुद्धीनां किन्तु दौर्बल्याद्वेदश्चापि तथैव भोः' ।। ३८ ।। एवं तं बहुधा स्तुत्वा स्तोत्रैः श्राव्यैर्मनोहरैः । आदाय पद्मपत्राणि श्रीपाद वेङ्कटेशितुः ।। ३९ ।। आर्चयामासुरव्यग्रं नामभिः सूतभाषितैः । मुनि गण कहने लगा-जो पृथ्वी से समस्त धूलिकणों के गिन सकेगा, वही पुरुष भगवान के अनन्त गुण तथा वीयों की भी सणना कर सकेगा। जिस विविक्रम महाविष्णु ने समस्त पृथ्वी पर तीन बार पैर रखा तथा जिसने भ्रमों को धारण किया, उसी विष्णु भगवान को प्रणाम है । जो दस अङ्गुल का होकर भी सारे संसार में व्याप्त रहते हैं, जिससे भूत भविष्यत तथा वर्तमान सभी व्याप्त हैं, उसी विष्णु को प्रणाम है । जिसके एक भाग में संसार तथा त्रिपाद आकाश है, उसको नमस्कार करता हूँ । जिससे ऋक्, साम तथा तुरग आदि उत्पन्न हुए है, जिसके मुख से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रिय, ऊरु से वैश्म, पैरों से शूद्र एवं मुख से अग्नि, मन से इन्द्र तथा नेत्रों से सूर्य और चन्द्रमा उत्पन्न हुए हैं उसी परब्रह्म को नमस्कार है । भानव लोग आपके गुणों की सीमा होने के कारण आपके पाससे लौटते हैं, ऐसा नहीं, वरन् अपनी बुद्धि दौर्बल्य ही के कारण लौटते हैं। वेद भी उसी तरह की हैं। इसी तरह ऋषियों ने अनेक स्तुति मन्त्रों से स्तुति कर, पद्मपत्र लाकर सूत कथित नामावली से पाठ तथा अर्चना की । (३४-४१)