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ब्रह्मादयो देवगणाः सिद्धाश्च परमर्षय ।। ४२ ।। अस्तुवन् वेदमन्त्रैश्च स्तोत्रैश्च विविधैः परैः । ववर्युः पुष्पवर्षाणि ननृतुश्चाप्सरोगणाः ।। ।। ४३ देवदुन्दुभयो नेदुर्वीणामुरजमर्दलाः । तब श्वेतवरह ने उस पाताल तल में गयी हुई सभी सत्रों से समाश्रित पृथ्वी को दन्ताग्र से निकालकर तथा महाजल राशि को दिक्षब्ध कर, शेषनाग के फण पर लात रखते हुए जनलोक में लाकर पर्वत के समान ठहरा दिया । ब्रह्मादि देवतागण, सिद्ध तथा महर्षिगण, नाना प्रकार के स्तोत्र तथा वेदमंत्रों से स्तुति करने लगे तथा पुष्पवर्षा की गयी । अप्सराएँ नाचने लगी । देव दुन्दुभी (नगाड़ा), वीणा, मुरज, मर्दल आदि भाँति-भाँति के बाजे बजाने लगे । (४०-४४) देवा ऊचुः जय देव महापोत्रिन् ! जय भूमिधराच्युत ! ।। ४४ ।। हिरण्याक्षमहारक्षोविदारणविचक्षण । त्वमनादिरनन्तश्च त्वत्तः परतरो न हि ।। ४५ ।। त्वमेव सृष्टिकालेऽपि विधिभूत्वा चतुर्मुखः । सृजस्येतज्जगत्सर्व पासि विष्णुः समन्ततः । । ४६ ।। कालाग्रिरुद्ररूपी च कल्पान्ते सर्वजन्तुषु । अन्तर्यामी भवान् देव ! सर्वकर्ता त्वमेव हि ।। ४७ ।। निष्कृष्टं ब्रह्मणो रूपं न जानन्ति सुरास्तव । प्रसीद भगवन् विष्णो ! भूमि स्थापय पूर्ववत् ।। ४८ ।। सर्वप्राणिनिवासार्थमस्तुवन् विबुधव्रजा । देवताओं ने कहा-हे महा पोत्री भगवान आपकी जय हो । हे पृथ्वी के उद्धार करनेवाले, हिरण्याक्षमहाराक्षस के विदारण में कुशल, आपकी जय हो ।