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242 इस संर की पाकर वे ऋषिवृन्द पांच वर्षों तक, वेङ्कटाद्रि के सभी तीर्थो में स्नान कर तथा अनेकों आश्चर्य देख भगवान माधव की पूर्णतः पूजा करके अन्ततः नैमिशारण्यं में लौट आये । अथ सूतं प्रति शौनकादिस्तुति गत्वा तु नैमिशारण्यं मुनिसङ्कनिषेवितम् । उपसृत्य पुनः सूतं प्रोचुरेवमिदं वच ।। ४७ ।। अहो तव तु विज्ञानमहो सामथ्र्यमेव ते । यथोक्तं भवता विष्णोर्वेङ्कटाद्रिनिवासिनः ।। ४७ ।। रूपभौदार्यरूपं च गिरिरूपं तथैव च । स्थितं तथैव तत्सर्वमहो वेङ्कटभूधरः ।। ४९ ।। त्वत्प्रसादाद्वयं सर्वे कृतार्थाः स्मो महामुने । संस्थानं वेङ्कटेशस्य गिरेस्तस्य च सर्वतः ।। ५० ।। दृष्टमेतत्त्वया किं वा श्रुतं वा सूत तन्मुने । इति स्तुतस्ततस्सूतः प्रोवाचेदं वचस्तदा ।। ५१ ।। (४५-४६) अथ सूत के प्रति शौनकादि की स्तुति सपोधनवृन्द नैमिषारण्य में जाकर मुनिसंघ सेवित श्री सूतजी से पुन: इस प्रकार कहने लगे-हे भगवान सूत जी ! आपका ज्ञानभंडार धन्य है। आपका सामथ्र्य धन्य-धन्य!। आपने वेङ्कटाद्रि निवासी भगवान का रूप औदार्य तथा गिरिस्वरूप जैसा कहा वैसा ही सब कुछ है ! हे महामुनि ! आपकी कृपा से हम लोग परम कृतार्थ हो गये। हे मुनि ! उस वेङ्कटेश जी के तथा पर्वत के सब प्रकार के संस्थान को, क्या आपने देखा था अथवा सुना था? यह सब सुन श्री सूतजी यह वचन बोले । (४७-५१)