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246 पुष्परागमहद्द्वारं सप्तभूमिकगोपुरम् । सन्दीप्तवज्रसुकृतकवाटद्वयशोभितम् ।। ८ ।। प्रविश्यादौ ददशन्तर्दिव्यमौक्तिकमण्डपम् । वैडूर्यवेदिकं तुङ्गमारुरोह महामुनिः ।। ९ ।। श्री व्यास जी ने कहा धा-हे सूत प्राचीन काल के देययुग में मुनिश्रेष्ठ नारदमुनि ने नानारत्नसुशोभित सुमेरु शिखर के ऊपर जाकर, उसके मध्य में अत्यन्त तेजपूर्ण ब्रह्म का दिव्य स्थान देखा, जिसके उत्तरीय भाग में एक परमोत्तम हजार योजन ऊँचा और इसके दुगने विस्तार में फैला हुआ एक पीपल का वृक्ष या, उसके मूल में नाना रत्न जटित, पद्मराग के हजारों स्तम्भों से सुशोभित वैढूर्य मुक्तामणि आदि समलंकृत स्वस्तिकमालाओं से युक्त, नवरत्नसमाकीर्ण स्वर्गीय तोरणों से सुशोभित नवरत्नमय, मनोहर, मृग तथा पक्षियों से समाकीर्ण पुष्फराग के फाटक से युक्त, सात सोपान के गोपुर सहित चमकते हुए वज्रमणि के दोनों कपाटों से सुशोभित दिव्य मण्डप में प्रवेश कर पहले-पहल दिव्य भुक्तामण्डप को देखा । तत्पश्चात वैढूर्य की ऊँची वेदी पर महामुनि नारद जी बढ़ गये । (३-९) तन्मध्ये तुङ्गमतुलं वसुपादविराजितम् । ददर्श मुक्तासङ्कीर्ण सिंहासनमहद्युति ।। १० ।। तन्मध्ये पुष्कर दिव्यं सहस्रदलशोभितम् । श्वेतं चन्द्रसहस्राभं कणिकाकेसरोज्ज्वलम् ।। ११ ।। तस्य मध्ये समासीनं पूर्णचन्द्रायुतप्रभम् । कैलासपर्वताकारं सुन्दरं पुरुषाकृतिम् ।। १२ ।। चतुबहुमुदाराङ्ग वराहवदनं शुभम् । शङ्खचक्राभयवरात्बिभ्राण पुरुषात्तमम् ।। १३ ।। पीताम्बरधरं देवं पुण्डरीकायतेक्षणम् । पूर्णेन्दुसौम्यवदनं वपागन्धिमुखांबुजम् ।॥ १४ ॥ ।