पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/२६७

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249 ईला, तथा पिंगला नाम की अपनी दो सखियों से संयुक्त हो, आकर इन्ही सखियों से लाई हुई पुष्पराशि को श्री वराहदेव के चरणकमलों में चढाकर, प्रणाम कर तथा हाय जोडकर खडी हो गयी । श्री दराहदेव ने भी उस पूज्य पृथ्वी देवी को आलिङ्गन कर, गोद में बैठाकर प्रीतिपूर्ण मन से कुशल प्रश्न पूछा ! (२२-२६) धरणीवराहसंबादः श्री वराह उवाच ---- त्वां निवेश्थ महीदेवि ! शेषशीर्षे सुखावहे । लोकं त्वयि निवेश्यैव त्वत्सहायान्धराधरान् । इहागतोऽस्म्यहं देवि किमर्थ त्वमिहागता ? ।। २७ ।। श्री वराह जी बोले-हे प्रिये ! पृथ्वी देवी ! तुम को सुखपूर्ण श्री शेषनाग के मस्तक रूप स्थानपर एवं संसार के बड़े-बड़े पर्वतों को तेरे ऊपर स्थापित कर मैं यहाँ चला झाया था ! है देवि ! यहाँ झिछ कारण से छायी हो? पृथिव्युवाच 'मां समुत्य पातालात्सहस्रफणिशोभिते रत्नपीठ इवोत्तुङ्गे सरत्नेऽनन्तमूर्धनि ।। २८ ।। कृत्वा मां सुस्थिरां देव धरांश्चापि न्यवेशयः । मद्धारणक्षमान्धुण्यांत्स्बन्मयान्पुरुषोत्तम । तेषु मुख्यान्महाबाहो मदाधारान्वदस्व मे' ।। २९ ।। पृथ्वीदेवी बोली-मुझे पाताल से निकल कर, रमणीय रत्नपीठ के समान सहस्रफण के अनन्तमूर्धापर सुस्थिर कर जिन पर्बतों को भेरे ऊपर रख दिया हैं, हे पुरुषोत्तम ! मुझको धारण करने में समर्थ, मुझ्य-मुख्य मेरे आधाररूप उन पर्वतों को मुझे बता दें 1 . . (२८-२९) 32