पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/२७

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आप अनादि हैं। अार से ऋड़ा कोई नहीं हैं। आप सृष्टिकाल में ब्रह्म होकर सृष्टि रचते हैं तथा ब्रिएणु होकर पालन करते हैं और काल्पान्त में कालाग्नि रूप महान्न होकर संहार करते हैं । हे भगवान आप ही अन्तर्यामी हैं, आप ही सब कुछ करनेवाले हैं। परब्रह्म से ही निकले हुए आपके रूप को देवगण भी नहीं जनते । हे भगवन् ! विष्णो ! आप प्रसन्न होकर पूर्ववत भूमि की स्थापना कर दें । एवं नाना प्रकार से देवताओं ने सभी प्राणियों के निवास के लिये प्रार्थना की । (४५-४८) इति श्रो वराहपुराणे श्रीवेङ्कटाचलमाहात्म्ये श्वेतवराह कृत हिरण्4ाक्षवधनिरूपणं नाम त्रयस्त्रिंशोध्यायोऽन्न प्रथमः । 2 3 द्वितीयोऽध्यायः सूत उवाच ततः श्रेतवराहश्च स्थापयित्वा धररां तदा । विभज्य सागरान् सप्त लोकान् सप्त च पूर्ववत् ॥ १ ॥ चतुर्मुखं समाहूय ‘सृज पूर्वं यथा जगत्' । इत्युवाच महाक्रोड: सर्वयज्ञमयो हरिः ।। २ ।। सूर्याचन्द्रमसा धाता यथापूवमकल्पयत् । धरा वराहदेवोऽपि लोकानुग्रहकाम्यया ।। ३ ।। निज निवास-हित दिव्य थल, क्रीडाचल को जान । लाकर महि पर धरन हित, भेज्यो गरुड महान ।। १ ।। जाकर श्री वैकुण्ठ में, दृश्य अनन्त अनूप ! देखा श्री विहगेश ने, क्रीडागिरि हरि रूप ।। २ ।। नारायण गिरि को लिये, महा वेग से आय । थाप्यो प्रभुहित ताहि महिं, प्रभुरज भाथ लगाय ।। ३ ।।