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252 एतैरधिष्ठितास्तत्र सरितः पुण्यदर्शना ।। ४३ ।। सरांसि विविधान्यन्न सन्ति दिव्यानि भाधवि । उसी कमल नामक तालाब के उत्तरीय भाग के अनुई क्रोसों में हरिचन्दन शोभित परमोत्तम जंगल में वेङ्कटाचल नाभ का महान वासुदेवालय है। यह वेङ्कटावल सात योजन विस्तीर्ण और एक योजन ऊँथा है । हे देवि ! यह पर्वत रत्नमय चोटियों से परिपूर्ण है, जहाँ इन्द्रादि देवतागण, वसिष्ठादि मुनीश्वर, सिद्ध, साध्य मरुत, दानव, दैत्य राक्षस, रम्भादि अप्सरासंघ सभी स्थायी रूप से निवास करते हैं। तथा गरुडगण, कन्नरगण तपस्या करते रहते है ! हे भाधवि ! हे पृथ्वीदेवि ! इन्ही संबों से अधिष्ठित वहाँ पर अनेकों पुण्यवर्शन पबित सलिला नदियाँ तथा पुष्करिणियाँ हैं ! (३९-४३) स्वामिपुष्करिण्यः सर्वतीर्थातिशायित्ववर्णनम् तीर्थानां चैव सर्वेषां श्रणष्ट प्रवराणि वै ।। ४४ । । चक्रतीर्थ दैवतीर्थ वियद्भङ्गा तथैव च । कुमारधारिकातीर्थ पापनाशनमेव च ।। ४५ ।। पाण्डवं नाम तीर्थं च स्वामिपुष्करिणी तथा । सप्तैतानि वराण्याहुर्नारायणगिरौ शुभे ।। ४६ ।। वहाँ के सभी तीर्थो में श्रेष्ट तीथों के विषय में कहता हूँ। चक्रतीर्थ दैवतीर्य, आकाशगंगा, कुमारधारिकातीर्थ, पापनाशनतीर्थ, पाण्डवतीर्य तथा स्वामिपुष्करिणीतीर्थ इन्ही सातों को नारायण गिरि पर श्रेष्ठ बसाते हैं। (४४.४६) एतेषु प्रवरा देवि स्वामिपुष्करिणी शुभा । अस्यास्तु पश्चिमे तीरे निवसामि त्वया सह ।। ४७ ।।