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253 आस्तेऽस्या दक्षिणे तीरे श्रीनिवासो जगत्पतिः । गङ्गाचैस्सकलैस्तीर्थे:समासा सागराम्बरे ।। ४८ ।। तैलोक्ये यानि तीर्थानि सरांसि सरितस्तथा । तेषां स्वामित्वमापन्ने धरे स्वामिसरोवरे ।। ४९ ।। स्वामिपुष्करिणीं पुण्यां सेवितुं दिव्यभूधरे । वसन्ति सर्वतीर्थानि तेषां संख्यां वदामि ते ।। ५० ।। हे देवि ! इन सबों में भी प्रधान स्वामिपुष्करिणी तीर्थ ही है। इसी स्वामिपुष्करिणी के पश्चिम तौर पर मैं तुम्हारे साथ वास करता हूँ और इसी के दक्षिण भाग में जगत्पति श्रीनिवास रहते हैं। यह पुष्करिणीतीर्थ गंगादि सभी तीर्थो के समान है तथा त्रैलोक्य में जितनी नदी, तालाज आदि तीर्थ हैं, उन सब तीर्थो का स्वामित्व इसी स्वामिपुष्करिणी पर है। सभी तीर्थ परम पवित पुण्य स्थामिपुष्करिणी के सेवार्थ आकर बसते है जिनकी संख्या के विषय में मैं तुमसे कहता हूँ। (४७-५०) षट्षष्ठिकोटितीर्थानि पुण्येऽस्मिन्भूधरोत्तमे । तेषु चात्यन्तमुख्यानि षट् तीर्थानि वसुन्धरे ।। ५१ ।। पञ्चानां तीर्थराजानां तुम्बो गर्भसहो महान् । गर्भवासभयध्वंसो स्नातानां भूधरोत्तमे ।। ५२ ।। हे पृथ्वी ! इस पुण्य भूधरोत्तम पर छाछठ करोड तीर्थ है, उनमें विशेषकर छः ही सुखप तीर्थ है । पर्वत श्रेष्ठ में स्नानकारियों को गर्भभय से मुक्त करनेवाला तुम्वतीर्थ पांच तीर्थराजों में गर्भ के समान है । (५१-५२) धरण्युवाच :- षट् तीर्थानि महाबाहो त्वयोक्तानि महीतले । माहात्म्यं वद तेषां मे यथाकालं यथाविधि । फलानि तेषु स्नातानां नराणां वद भूधरे ! ।। ५३ ।।