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254 पृथ्वीदेवी बोली हे प्रभु ! हे महाबाहू !! आपने जो इस पर्वत पर छः तीर्थ बताये, उनका यथाकाल यथाविधि माहात्म्य तथा उनमें स्नान करनेवालों के फलों को मुझ से वतावें । (५३) श्रीवराह उवाच नारायणाद्रिमाहात्म्यं वदामि श्रण माधवि ! देवाश्च ऋषयश्चैव योगिनः सनकादयः ।। ५४ ।। कृतेऽङ्गनाद्रि त्रेतायां नारायणगिरिं तथा । द्वापरे सिंहशैलं च कलौ श्रीवेङ्कटाचलम् ।। ५५ । । प्रवदन्तीह विद्वांसः परमात्मालयं गिरिम् । योजनानां सहस्रान्ते द्वीपान्तरगतोऽपि वा ।। ५६ ।। या नमत् भूधरेन्द्रं तद्दिशमुद्दिश्य भक्तितः । सर्वपापविनिर्मक्तो विष्णलोकं स गच्छति ।। ५७ ।। श्री बराह भगवान बोले-हे माधवि देवि! मैं नारायणाद्रि का माहात्म्य वर्णन करता हूँ उसे तुम सुनो । देवता, ऋषि तथा विद्वर सनकादि योगी परमात्मा के निवास स्थान इस पर्वत को कृतयुग में अंजनाद्रि, तेतायुग में नारायण. गिरि, द्वापरयुग में सिंहशैल तथा कलियुग में श्री वेङ्कटाचल कहते हैं। जो भक्तिभाव से, हजारों योजन दूर किसी दूसरे द्वीपान्तर में रहकर भी उस दिशा को लक्ष्यकर इस पर्वत को प्रणाम करता है वह सब पापों से मुक्त होकर विष्णु लोक में चला जाता है । (५४.५७) कुमारधारमाहात्म्यम् तस्मिन्षट्तीर्थमाहात्म्यं यथाकालं वदामि ते । श्रुणुष्वावहिता भद्रे सर्वपापप्रणाशनम् ।। ५८ ।। कुम्भसंस्थे रवौ भाघे पौर्णमास्यां महातिथौ । मघानक्षत्रयूक्तायां भूधरेन्द्रे वसुन्धरे ।। ५९ ।।