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258 दिनेष्वेतेषु यः स्नाति तस्य पुण्यफलं शृणु देवतीर्थमाहात्म्य हे देवि ! अनन्त नामक पर्वत में मेरे दिव्यालय के वायव्यकोण में गिरिशिखर के गह्वर में अतिरहस्यमय देवतीर्थ नामक अत्यन्त सुन्दर तालाब है । उस पुण्यतम तालाब में स्नान करने का समय मैं बतलाता हूँ। गुरुवार के दिन पुष्प के ब्धतीत हो जाने पर अथवा सोमवार को श्रवण नक्षत्र पड़ने पर जो कोई स्नान करता है उसका फल सुनो । (७१-७३) यानि कानीह पापानि ज्ञानाज्ञानकृतानि च ।। ७४ ।। तानि सर्वाणि नश्यन्ति देवतीर्थेऽतिपावने । पुण्यान्यपि च वर्धन्ते देवतीर्थनिमज्जनात् ।। ७५ ।। दीर्घमायुरवाप्नोति पुत्रपौत्रसमन्वितः । अन्ते स्वर्ग सभासाद्य चन्द्रलोके महीयते ।। ७६ तद्दिनेष्वन्नदो देवि ! यावज्जीवान्नदो भवेत् । अतिगुह्यतमं देवि ! प्रोक्तं तुभ्यं वसुन्धरे ! ।। ७७ ।। ज्ञान वा अज्ञान चाहे किसी तरह से किया गया, जो कोई भी पाप ही वह सभी इति अति पवित्र देवतीर्थ में विलीन अथवा नाश हो जाता है । इस देवतीर्थ में स्नान करने से पुष्य की अत्यन्त वृद्धि भी होती हैं तथा मनुष्य पुत्र-पौत्र सबों से परिपूर्ण होकर दीर्घ आधु पाता है, अन्त में स्वर्गलोक पाकर चन्द्रलोक में बढ़ता हैं । हे देवि ! उस दिन अन्नदान करनेवाला जीवनभर अन्नका अखण्ड रूप से दान करनेवाला होता है ! हे वसुन्धरे ! तुमसे हमने अत्यन्त गुह्यतम वार्ता कही है। (७४-७७) श्रुत्वाऽथ पृथिवी देवी प्रीतिप्रवणमानसा । इष्टाभिर्वाग्भिरतुललं तुष्टाव धरणीधरम् ।। ७८ ।।