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थह सब सुनकर पृथ्वी देवी ने अत्यन्त प्रसन्न चित्त से अनुपम धरणीधर भगवान वराहदेव की मीठे स्वरों में स्तुति की । (७८) 259 धरणीकृतवराहस्तुति धरण्युवाच :-

  • नमस्ते देवदेवेश वराहवदनाच्युत ।

क्षीरसागरसङ्काश ! वज्रशृङ्ग ! महाभुज ! ।। ७९ ।। उद्धतास्मि त्वया देव कल्पादौ सागररांभसः । सहस्रबाहुना विष्णो धारयामि जगन्त्यहम् ।। ८० ।। अनेकदिव्याभरणयज्ञसूत्रविराजिल । अरुणारुणाम्बरधर दिव्यरत्नविभूषित ।। ८१ ।। उद्यद्भानुप्रतीकाशपादपद्म नमो नमः । धरणीकृतवराहस्तुति धरणीदेवी बोली-हे वराहवदन ! देवाधिदेव, भगवान, अच्युत, क्षीरसागर के समान रुपवाले, वज्र शृङ्ग तथा महाभुज, हे प्रभो ! आपको प्रणाम करती हूँ । हे विष्णु ! सहस्रबाहु ! कल्प के आरंभकाल में समुद्र के जलतल से आपसे ही बाहर निकाली हुई में जगत को धारण करती हूँ । हे अनेक दिव्य आभूषणों की धारण करनेवाले, यज्ञसूत्र विराजित, रक्तवत, एकान्त, लाल वस्त्रधारी, दिव्यरत्न विभूषित तथा उगते हुए सूर्य की प्रभा के समान पादपधवाले भगवान ! आपको प्रणाम है । (७९-८१) बालचन्द्राभदंष्ट्रा महाबलपराक्रम ! ।। ८२ ।। दिव्यचन्दनलिप्ताङ्ग तप्तकाञ्चनकुण्डल इन्द्रनीलमणिद्योतिहेमाङ्गदविभूषित ।। ८३ । ।