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40 वैकुण्ठ से भगवान् के क्रीडापर्वत लाने की कथा श्री सूतजी बोले -उपरोवत काम हो जाने पर श्री श्वेतवराह महाक्रोड तथा सर्वयज्ञमय भगवान ने पृथिवी की स्थापना करके, समुद्रों, पर्वतों तथा लोकों को सात-सात विभागों में पूर्ववत् विभाग कर के चतुर्मुख ब्रह्माजी को बुलाया और पूर्ववत् सृष्टि करने के लिये आज्ञा दी । तदनुसार ब्रह्माजी ने सूर्य, चन्द्रमा की यथापूर्वं रचना की। (१-३) भूमौ स्थातुं स्थलं दिव्यं बुद्धया निश्चित्य माधवः । गरुडं प्रेषयामास गिरिमानेतुमद्भुतम् ।। ४ ।। 'वैनतेय ! महासत्व ! गच्छत्वमतिवेगतः । गत्वा तु परमं धाम क्रीडाचलमिहानय ।। ५ । । सर्वान् पारिषदांश्चापि विष्वक्सेनमुखान् सुरान् । इत्युक्तो गरुडः साक्षादुत्पपात विहायसम् ।। ६ ।। वराह का रूप धारण किये हुए भगवान माधव ने संसार की कल्याण-कामना से पृथिवी ही पर रहने के लिए दिव्य स्थान भन में निश्चय कर अत्यन्त अद्भुत पर्बत को लाने के लिए गरुङजी को भेजकर कहा -' हे महासत्त्र गरुड, तुम परम धाम को बहुत वेग से जाकर क्रीडाचल पर्वत को यहाँ ले आक्षो । और विष्त्रक्सेन आदि सहित सभी परिषदर्ग को भी यहाँ ही ले आजो । यह सुनकर गरुङ जी आकाशा में उड़े । गते तु गरुडे तस्मिन्नानेतुं पर्वतोत्तमम् । पोत्रिरूपी हरिभूमिं स्थापयित्वा च पूर्ववत् ।। ७ ।। पद्भचां भूमिं समाक्रम्य गोमतीतीरभागतः । तस्यास्तु दक्षिणे भागे षष्ठियोजनदूरतः ।। ८ ।। पूर्वाब्धेः पश्चिमे भागे पञ्चभिर्योजनैर्युते । देशे पुण्यजनाकीर्णे रुक्मनद्यास्तथोत्तरे !! ९ !! आगत्य तस्थौ देवोऽपि गरुडागमनोन्मुखः ।