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264 जषतां सदसम्पत्तिकारकं पुत्रपौत्रदम् । सार्वभौमत्वदं चैव कामिनां कामदं सदा ।। ४ ।। अन्ते यस्त्वत्पदप्राप्तिं ददाति नियतात्मनाम् । एवम्भूतं वद प्रीत्या मयि वाराह मानद ! ।। ५ ।। वरणी देवी बोली-हे देवेश ! आप किस मन्त्र से 3ाराधित होकर प्रसन्न होते हैं। हे मान दाता वराह भगवान ! अश् िप्रसन्न होकर अपने परम प्रिय मन्त को कृपया कहें । जो सदा जपनेवालों को सम्पत्ति, पुत्र एवं पौन्न से भरा पूरा कर देता है, जो सार्वभौमत्व रावं सब तरह की कामनाओं को पूर्ण करता है और अन्त में आपके पद को भी दे देता है । (३-५) इति पृष्ठस्तया भूम्यः प्राह प्रीतिस्मिताननः ।। ६ ।। श्री सूतजी कहने लगे-श्री भूमिदेवी के इस प्रकार पूछने पर प्रसन्नमुख श्री वराह भगवान कहने लगे । श्रीसूत उवाच :- श्रुणु देवि परं गुह्यां सद्यस्सम्पतिकारकम्। भूमिदं पुत्रदं गोप्यमप्रकाश्यं कदाचन ।। ७ ।। किञ्च शुश्रूषवे वाच्यं भक्ताय नियतात्मने श्री बराह भगवान बोले । हे देवि ! सुनो जो परम गोप्य तुरन्त ऐश्वर्य सम्पति तथा भूमि आदि सवको देनेवाला है और जो कभी प्रकाश करने लायक नहीं है, उसे मैं कहता हूँ । व मन्व केवल नियतात्मा परम भक्त को ही बताया जा सकता है । ॐ नमः श्रीवराहाय धरण्युद्धरणाय च ।। ८ ।। वह्निजायासमायुक्तः सदा जाप्यो मुमुक्षुभिः । अथं मंत्रो धरादेवि सवैसिद्धिप्रदायकः ।। ९ ।। ।