पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/२८५

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श्वेतद्वीपे जपित्वैव बभूव धरणीधर । तस्माज्जप्यः सदा चेह मनुष्यैश्च धरार्थिभिः ।। २२ ।। 267 हे देवि ! पहले कृतयुग में धर्म नामक महामनु ने ब्रह्मा से इस मन्त्र को पाकर इसी पर्वत पर जप किया था और उसके फल स्वरूप मेरे दर्शन तथा वर पाकर अन्त में मेरे स्वरूप को भी पाया । प्राचीन समय में दुर्वासाऋषि के शाप से स्वर्ग से गिराये गये इन्द्रदेव ने इसी मन्त्र से मेरा पूजन कर पुन: स्वर्ग प्राप्त किया पृथ्वी तल में और अनेकों मुनियों ने इस मन्त्र को जपकर परमगति लाभ किया। पन्नगाधीश श्री अनन्तभगवान भी कश्यप ऋषी से इसी मन्त्र को पाकर श्वेतद्वीप में जपकर धरणीधर हो गये । अत एव भूमि चाहनेवाले को यह मन्त्र सर्वदा जपना चाहिये । (१९-२२) श्रीसत उवाच :- एतच्छूत्वाऽथ सुप्रीता पुनः प्राह धराधरम् ।। २३ ।। श्री सूत जी बोले-यह सुनकर परम् प्रसन्न हो, धरणी देवी घराधर भगवान से पुन: बोली । (२३) धरण्युवाच :- वेङ्कटाख्ये महाशैले श्रीनिवासो जगत्पतिः । कदाह्यायाति देवेशः श्रीभूमिसहितोऽमलः ।। २४ ।। कथं कल्पान्तरस्थायी भविष्यति जनार्दनः । एतद्बूहि वराहात्मन् ! महत्कौतूहलं मम ।। २५ ।। धरणी देवी बोली-वेङ्कटाचल पर्वत पर जगत्पति देवाधिदेव अमल श्रीनिवास भगवान श्री तथा भूमिदेवी के साथ कब आते हैं? और वही जनांदन कल्पान्तर स्थायी किस प्रकार हो जाते हैं? हे वराह देव ! आप मुझे यह बतला दे । (२४-२५) इति श्रीवाराहपुराणे भूगोलोपाख्याने धरणीवराहसंवादे श्रीवेङ्कटाचलमाहात्म्ये उत्तरार्धे श्रीवराहमन्त्राराधनविध्यादि वर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः