पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/२८७

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269 पहले बैवस्वत कृतयुग में वायुकी घोर तपस्या देखकर श्री भूमि सहित श्रीनिवास भगवान स्वामिपुष्करिणी तटपर चले आये और वायु के प्रसन्नार्थ इसी दक्षिण के पूण्यतम नन्द नामक विमान में श्रीकान्त भगवान निवास करने लगे । उसी समय से कार्तिकेय द्वारा आराधित हो कल्पपर्यन्त इसी पर्वतीय विमान में अदृश्य रूप से निवास करने लगे । धरण्युवाच :- अदृश्यो भगवान्मत्यैः कथं दृश्यो भविष्यति श्रीनिवासोऽपि देवेशो भवद्दक्षिणपार्श्वगः । एतद्वद सुराधीश जनैराराध्यते कथम् ? ।। ५ ।। धरणी देवी बोली-हे देव ! अदृश्य रूप भगवान मनुष्यों को कैसे दृश्य होंगे ! हे सुराधीश ! आपके दक्षिण भाग में रहकर देवेश श्रीनिवास भी मनुष्यों से कैसे आरराशित होते हैं। (५) श्री वराह उवाच अगस्त्योऽस्मिन्समासाद्य पुरा देवं सनातनम् । आराध्य द्वादशाब्दं तं प्रीणयित्वा पुनः पुनः ।। ६ ।। याचे तत्र सान्निध्यं भवान् दृश्यो भवत्विति । एवमुक्तो हृषीकेशः श्रीभूमिसहितो धरे ।। ७ ।। श्री भगवानुवाच :- अहं दृश्यो भविष्यामि त्वत्कृते सर्वदेहिनाम् । एतद्विमानं देवर्षे न दृश्य स्यात्कदाचन ।। ८ ।। आकल्पान्तं मुनीन्द्रास्मिन्दृश्योऽहं नात्र संशयः । मुनिस्तद्वचनं श्रुत्वा प्रीतः प्रायात्स्वमाश्रमम् ॥ ९ ॥ (२-४)